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समय देशना - हिन्दी
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होती है। संघ में जिनवाणी लेकर बैठेगा, तो उपशमन भाव को प्राप्त करेगा । और उतना ही शास्त्र स्वाध्याय करो, जितना अविसंवादीपन रहे। जिनवाणी के व्याख्यान में विसंवाद होने लग जाये, तो बड़े प्रेम से भगवती वाणी को बन्द कर देना, लेकिन जिनवाणी को खोले- खोले विसंवाद नहीं करना । क्योंकि विसंवाद करने से कषायिक भावों का उदय होता है। काषायिक भावों के उदय से कर्म का आस्रव होता है । आस्रव भाव आयेंगे, तो बन्ध होगा । बन्ध होगा तो संसार बड़े प्रेम से बढ़ेगा । हम यहाँ संसार बढ़ाने नहीं आये, संसार घटाने आये हैं। सभी से बोल देना कि तत्त्व उपदेश में विसंवाद नहीं करना । जिनवाणी अविसंवादी ही होती है। अर्हत वचन अविसंवादी वचन हैं ।
इसलिये आचार्य भगवान् अमृतचन्द्र स्वामी कह रहे हैं कि ये अर्हत के वचन हैं, वे भाववाच्य - यानि भाव- समयसार द्रव्य- समयसार रूप भाषा का उपक्रम करते हैं ।
वीतरागं जिनं नत्वा ज्ञानानन्दैकसम्पदम् । वक्ष्ये समयसारस्य वृत्तिं तात्पर्यसंज्ञिकाम् ॥१॥ ता. वृ॥
आचार्य जयसेन स्वामी कह रहे हैं, कि जिन नामधारी की वंदना नहीं है, वीतराग जिन की वंदना । वीतराग जिन को नमस्कार करके । कैसे हैं वे जिन ? ज्ञान ही एक आनंद की सम्पदा है जिनके, ऐसे जो समयसार रूप है संज्ञा जिसकी, उसकी तात्पर्यवृत्ति कहता हूँ ।
विस्तार बुद्धि के शिष्य को बोध कराने के लिए आचार्य जयसेन स्वामी पातनिका (पीठिका) सहित व्याख्यान करते हैं । प्रथम स्थल में छः गाथा, द्वितीय स्थल में दो गाथा, तृतीय स्थल में दो गाथा, चतुर्थ स्थल में दो गाथा, पंचम स्थल में दो गाथा, इस प्रकार चौदह गाथा पर्यन्त समयसार पीठिका समझना चाहिये । शेष ४२५ गाथा मूल का विष्लेशण है ।
हे ज्ञानी ! निश्चयनय से मैं स्वयं आराध्य हूँ, मैं स्वयं में आराधक हूँ । व्यवहारनय पंचपरमेष्ठी आराध्य हैं, मैं आराधक हूँ । परमशुद्ध निश्चयनय से इस लोक में न कोई आराध्य है, न आराधक है। परभावों से भिन्न मैं अवक्तव्य हूँ, ऐसे निर्विकल्प समाधि भाव को नमस्कार । व्यवहारनय से वचनात्मक व द्रव्य नमस्कार । “वंदित्तु सव्वसिद्धे" ये द्रव्य नमस्कार है । किसको ? सव्व सिद्धे । सब सिद्ध कौन से ? लाठी सिद्ध, खड्गसिद्ध आदि को नहीं। तो चबूतरे की वंदना ? नहीं-नहीं। फिर किस सिद्ध की वंदना ? "स्वात्मोपलब्धि सिद्धे", जो स्वात्मा से सिद्ध हैं उस सिद्ध की वंदना है। उस अंजन चोर ने अंजन को सिद्ध कर लिया था । वह आँख में लगा लेता था, तो दिखाई नहीं देता था । उस सिद्ध की वंदना नहीं है । यहाँ स्वात्मोपलब्धि की सिद्धि को प्राप्त किया है जिनके, उस सिद्ध की वंदना है।
स्वात्मोपलब्धि सिद्धि, परम पारिणामिक, ज्ञायक स्वभाव वीतराग भाव जो कर्मातीत है, वही स्वात्मोपलब्धि सिद्धि है । जिन्होंने सिद्ध गति को प्राप्त किया है, ऐसे सिद्धों की वंदना है ।
जैसे पाषाण की शिला में टांकी से उत्कीर्ण कर प्रतिमा को अवतीर्ण किया जाता है, तो कितने भी तूफान में वह प्रतिमा विघटित नहीं होती है। ऐसे ही जिनने भेदविज्ञान की छैनी से निज ध्रुव आत्मा को टंकोत्कीर्ण किया है, ऐसा परम टंकोत्कीर्ण ज्ञायकस्वभाव जो आत्मा का धर्म है, वह सिद्ध कर लेना, जो अविनश्वर है ।
और कैसा है ? द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्म से रहित हैं । हे ज्ञानी ! ध्यान दो, आप सिद्ध नहीं हैं। आपके द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्म दिख रहे हैं। सिद्धस्वरूपी तो हो सकते हो, लेकिन सिद्ध नहीं हो
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