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समय देशना - हिन्दी
१५ __ हे मुमुक्षु ! तेरे घर में राग-द्वेष रूपी बहनों का जन्म तो होता है, तेरे घर में काषायिक भावरूप भैया तो है, पर जिस कन्या के साथ जीवन पूर्ण होना चाहिए, वह नहीं है । मुक्तिकन्या इन सबसे भिन्न है। अगर उसे चाहता है तो इन सम्बन्धों को तुझे दूर हटाना पड़ेगा। समझ गये, मुक्ति कन्या को लेने जाना है, तो उसके लिये दूल्हा बनना पड़ेगा, पिच्छि कमण्डलु लेना पड़ेगा। तुम पहले स्वरूप जानो, कन्या को जान लो, जानने में कोई कठिनाई नहीं है, कोई तुझे व्यभिचारी नहीं कहेगा, लेकिन लेने तभी जा पाओगे, जब दूल्हा बनोगे । बात को गहराई से समझना । कन्या को जानना किसी के भी ज्ञान का विषय हो सकता है, लेकिन मिलेगी उसे जो वर होगा, पात्र होगा। वह अनुपम सुन्दरी है मुक्तिवधू । मुक्तिवधू की उपमा किसी सुन्दरी को नहीं दी जा सकती है। वह ऐसी सुन्दरी है जिसके लिए, हे ज्ञानी ! एकान्त में तुझे निहारना पड़ेगा। उस कन्या को आँखों से नहीं देखा जा सकता । वह तो तन से रहित है, अतनुजा है । उस अतनुजा का भोग चेतन स्वभाव से होता है। वे तो अज्ञानी हैं जो आँख खोल रहे हैं, बन्द कर रहे हैं और कह रहे हैं कि वही दिख गई । अरे ! कहाँ दिख गई ? वह अतनुजा है, वह दिखती नहीं है।
___ आत्मा दिखती नहीं है, अतनुजा है। उस अतनुजा से मिलना है, तो तनुजा से मिलना बंद करना पड़ेगा। मिलेगी उसे, जो जिनमुद्रा को धारण करेगा । वह परम रमणी कैसी है ? परम आदर्शमयी है। जिसका कहीं दूसरा आदर्श नहीं है। तू मोह व इन्द्रियसुख में लिप्त रहा, इसलिए अनुपम दशा को प्राप्त नहीं हुआ। तो कैसे मिले? उसके लिए कह रहे हैं, कि स्वात्मा में लीन होकर । श्रुत अनादि-अनिधन है। आगम का कभी उत्पाद नहीं होता, आगम का कभी विनाश नहीं होता है। द्रव्यश्रुत की परम्परा वर्तमान में महावीर स्वामी से है, लेकिन संतति-अपेक्षा आगम अनादि-अनंत है । अनादि से अनंत काल तक वही श्रुत रहेगा। वह श्रुत कैसा है ? सम्पूर्ण अर्थों को साक्षात् प्रकट करनेवाला है । आचार्य अमृतचन्द्र कह रहे हैं, कि यह 'समयसार' मैं नहीं कह रहा, आचार्य कुन्दकुन्द भी नहीं कह रहे । वह अनादि से प्रकट हैं, सम्पूर्ण अर्थों को कहनेवाला, साक्षात् केवली-प्रणीत है । सम्पूर्ण अर्थ को प्रकाशित करनेवाला यदि कोई है, तो श्रुत है । यह केवली की वाणी है।
जब आचार्य-भगवान् नया ग्रन्थ प्रारंभ करते थे, तो हम आनंदित होते थे, उस ग्रन्थ को सिर पर रखते थे। क्यों? पुद्गल के टुकड़ों की अनुभूतियाँ अनंत वार ली हैं, पर चेतनप्रकाश की अनुभूति इसी पर्याय में मिल रही है। हे मुमुक्षु ! जब भी आप मुनिराज बनने के विचार में आयें, और जब भी योगीश्वर बनें, तो इस बात को आज डायरी पर नोट कर लेना, भविष्य में कभी स्मृति आ जाये तो दोहरा लेना, कि महाराज ने कुछ कहा था। हे मुमुक्षु ! जगत् की यश: कीर्ति किसी भी पर्याय में मिल सकती है, पर स्वात्मानुभूति का अनुभव निर्ग्रन्थ अवस्था मात्र में ही होता है। इसे प्रपंचों में नष्ट नहीं करना, इसे तो प्रकाश की ओर ले जाना। आपको सब मिल सकता है, पर आत्मवैभव जिनमुद्रा में ही मिलता है। इतना गहरा ग्रन्थ कैसे बन गया? ध्रुव सत्य बताऊँ, लिखने बैठते तो इतना सुन्दर नहीं लिख पाते। उन्होंने लखा था । हे ज्ञानी ! अनुभूति अंशों में नहीं होती, सर्वांश में होती है। पंचम गुणस्थान के परिणति की जो अनुभूति होगी, वह तेरे सर्वांश में होगी। और सम्यग्दृष्टि जीव वही होता है, जिसे तत्त्वानुभूति होती है। जिसे तत्त्वानुभूति नहीं, वह सम्यग्दृष्टि नहीं है। मैं जानकर बोल रहा हूँ, भ्रम से नहीं बोल रहा हूँ। जिसे तत्त्वानुभूति नहीं, वह सम्यग्दृष्टि नहीं।
हे मुमुक्षु ! साततत्त्व में तू जीव तत्त्व है कि नहीं? तेरे लिए तेरी ही अनुभूति नहीं, तो तू सम्यग्दृष्टि कैसा ? तू चैतन्य द्रव्य है, फिर भी तुझे चैतन्य द्रव्य का भान नहीं हो रहा है, तो पंचम गुणस्थानवर्ती बना
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