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दादाश्री कहते हैं, हमें, 'आज ऐसा करना है', ऐसा कुछ भी नहीं रहता। क्या मिलता है और क्या नहीं, इतना ही देखते हैं। अपने आप सहज रूप से मिल जाता हो तो, वर्ना कुछ नहीं। इसलिए यदि कोई काम नहीं होता तो हिसाब लगाकर देखते हैं कि इसमें कौन से संयोग की कमी है? ऐसे टाइम और सभी संयोग को देखते-देखते साइन्टिफिक सरकमस्टेन्शियल एविडेन्स सब का पता चला कि जगत् किस तरह से चलता है!
द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव के इकट्ठे होने (मिलने) पर कार्य हो जाता है। उसमें खुद का कर्तापना कहाँ है ?
अंत में सहज होना पड़ेगा। सहज हुए बगैर नहीं चलेगा। अप्रयत्न दशा से चाय व खाना जो भी आए उसमें कोई हर्ज नहीं। सहजता से खीर-पूरी मिले तो उसे खाए और सब्जी-रोटी मिले तो उसे भी खाए। एक का आदर नहीं और दूसरे का अनादर नहीं, वह सहज है। बाहर के प्राप्त संयोगों और अंदर के मन, बुद्धि के सभी संयोगों से पर होता है, अंदर जो चीख-पुकार करते हैं, जब उन सभी को खुद अलग रहकर देखेगा तब सहज दशा प्राप्त होगी। यदि दो बजे खाना मिला तो भी कुछ नहीं बोलना, क्या होता है उसे देखते रहना। खाने में यह दिक्कत करेगा, वह दिक्कत करेगा, ऐसा सब विकृत बुद्धि वाले को दिक्कत करता है, सहज को कुछ नहीं होता। सामने से आया हुआ दुःख भुगत ले, सामने से आया हुआ सुख भोग ले, सामने से आया हुआ खा ले, हमें दखल नहीं करना चाहिए, उसे सहज कहते हैं। सहज की प्राप्ति, वह प्रारब्ध के अधीन नहीं है, वह ज्ञान के अधीन है। यदि अज्ञान होगा तो असहज होगा और यदि ज्ञान होगा तो सहज होता जाएगा। यह तो अक्रम विज्ञान है, क्रम नहीं, कुछ नहीं करना है। जहाँ करे वहाँ संसार, जहाँ सहज वहाँ आत्मा। __मैं चलाता हूँ, मुझे कुछ करना पड़ेगा, मैं करता हूँ, वे भाव नहीं, कर्तापना की लगाम ही छोड़ देनी है। एक दिन ऐसा भाव करना कि दादा, मैंने आपको लगाम सौंप दी, अब तो मैं ज्ञाता-दृष्टा हूँ। मुझे कुछ
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