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त्रिकरण ऐसे होता है सहज
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सभी का धर्म सहज हो जाता है, यदि देह सहज हो गई तो सब सहज हो गया।
आत्मा तो सहज ही है, स्वभाव से ही सहज है, देह को सहज करना अर्थात् उसके परिणाम में दखल नहीं करना। उसका जो इफेक्ट होता है, उसमें किसी भी प्रकार का दखल नहीं करना, उसे सहज कहते हैं। परिणाम के अनुसार ही चलते रहे।
सहज अर्थात् क्या? मन-वचन-काया चलते रहे, उनका निरीक्षण करते रहो।
अनुभव पूर्वक की सहजता प्रश्नकर्ता : तो क्या मन-वचन-काया अपने मूल स्वभाव में आ जाते हैं?
दादाश्री : हाँ! स्वाभाविक। ये हमारे मन-वचन-काया सब स्वाभाविक है। स्वाभाविक जैसा है वैसा स्वाभाविक, उनमें दखल वगैरह नहीं करते। अगर आपको इस पर थोड़ा गुस्सा आ गया हो तो भी उसे स्वाभाविक कहा जाता है। मन-वचन-काया स्वाभाविक कहलाते हैं। अर्थात् भीतर वाला माल निकला, ऐसा कहते हैं। उसमें दखल नहीं करते, वह स्वाभाविक है।
साहजिक मन-वचन (वाणी) और काया के प्रत्येक कार्य सरल होते हैं। यदि अनुभव असहज हो तो वे कार्य नहीं होते। अनुभव के साथ साहजिकता होनी चाहिए तब कार्य होता है।
...बाद में मन-वाणी-वर्तन डिस्चार्ज प्रश्नकर्ता : जैसे आत्मा की ज्ञानशक्ति और उसकी अवस्था बदलती है वैसे मन-वाणी-वर्तन भी बदलते हैं क्या?
दादाश्री : मन तो, जो है वही रूपक में आता है, जो फिल्म बनी है वही फिल्म दिखाई देती है। मन में नया कुछ नहीं करना पड़ता।
प्रश्नकर्ता : लेकिन जब वह मन चलता रहता है, तब भीतर रोंग