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त्रिकरण ऐसे होता है सहज
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सोचना, वह मनोधर्म
इस संसार में सोचने जैसा कुछ है ही नहीं । सोचना, वही गुनाह है । जिस समय ज़रूरत हो, उस समय वह विचार आ ही जाता है। वह तो थोड़े समय सिर्फ काम के लिए ही, उसके बाद वापस बंद हो जाता है । फिर सोच-विचार करने के लिए एक मिनट बिगाड़ना, वह बहुत बड़ा गुनाह है। एक मिनट सोच-विचार करना पड़े, वह बहुत बड़ा गुनाह है इसलिए हम सोच-विचार में नहीं पड़ते।
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हम, हर समय आपके साथ खेलते हैं, चर्चा करते हैं, फलाना करते हैं वह सब हम निर्दोष रूप से करते हैं, जिसमें राग-द्वेष नहीं होता, मनोरंजक, आनंद बढ़ाए इस तरह का हो, उसमें रहते हैं । बाहर वाले भाग को कुछ तो चाहिए न ? और आत्मा, बस उसे जानता है कि ओहोहो ! क्या-क्या किया और क्या-क्या नहीं, वह सब हम जानते हैं । करता भी है और जानता भी है। क्योंकि एक मिनट से ज़्यादा सोच-विचार नहीं करना है। वह तो उसकी ज़रूरत के अनुसार अपने आप विचार आ ही जाते हैं, उसका नियम ही कुछ ऐसा है और अपना काम हो जाता है। ज़्यादा सोचने से, तन्मयाकार होकर करने से पूरे गाँव की गंदगी भीतर घुस जाती है क्योंकि उस समय (तन्मयाकार के समय) 'वह' खुला रहता है। जैसे कि यह एयर कम्प्रेसर रहता है, वह हवा खींचता है न और यदि वह बांद्रा (मुंबई) की खाड़ी पर खींचेगा तो ? सब में बदबू आने लगेगी। यदि इसे खुला रखेंगे न, तो सारी गंदगी ही घुस जाएगी इसलिए खुला ही नहीं रखना, स्पर्श ही नहीं करना ।
तब कोई पूछे कि सोचना, वह क्या मेरा धर्म है ? तब हम कहेंगे कि नहीं, तेरा नहीं है । वह तो, मन का धर्म है । उसमें तेरा गुनाह नहीं है लेकिन हमें, उससे अलग रहकर देखने की ज़रूरत है । ये लोग तो अपना धर्म नहीं निभाते । अपना धर्म क्या है ?
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प्रश्नकर्ता: देखने का ।
दादाश्री : हाँ, देखने का । उसमें तन्मयाकार नहीं होना। बाकी,