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ज्ञानी प्रकाशमान करते हैं अनोखे प्रयोग
प्रश्नकर्ता : दूसरों का तो कुछ रहता ही नहीं, खुद के अंदर ही
रहता है।
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दादाश्री : खुद का भय ही ऊपरी है, दूसरों को तो फुरसत ही
नहीं है।
पोतापने से हो गई जुदाई
सहज अर्थात् क्या? जो सब करे वही खुद को करना है, खुद का अपना नहीं। पोतापणुं नहीं रखना चाहिए। ये तो सब अपना-अपना अलग कर लेते हैं न? फिर अंदर कुढ़ते रहते हैं और यदि सब करे वैसा ही करेंगे न, तो पोतापणुं नहीं रहेगा। सहज होंगे, सहजता आएगी। हमें वह बहुत पसंद है। प्रकृति की असहजता के कारण आत्मा असहज हुआ। इसलिए मूल इस प्रकृति को सहज करना है । जिस समय सभी बोल रहे हो उस समय बोलना चाहिए। गा रहे हो उस समय गाना चाहिए, इसीलिए तो अपने यहाँ गाने गवाते हैं। वर्ना, गाने गवाने का कारण क्या है ? प्रकृति को सहज करने के लिए है । मन में से निकल जाए कि मुझसे ऐसा नहीं होगा और मुझसे ऐसा होगा, ऐसा सब निकल जाए ।
सत्संग में जुदाई नहीं पड़नी चाहिए। जैसा सब करे वैसा ही आपको करना चाहिए । अगर आपको अंदर स्थिर करना हो तो आप ऐसे स्थिर हो जाएँगे तो होगा। वह प्रकृति सहज अर्थात् क्या कि बाहर का हम जैसा करेंगे वैसा ही करना है । यदि खुद का अलग करने जाएगा तो उसका अलग से दिखाई देगा। अलग करने वाले को आप पहचानते हो क्या ?
अब ये भाई, इन पाँच-सात लोगों की टोली अलग बैठी है। अरे भाई, ज्ञानी पुरुष खुद इतने ज़ोर-ज़ोर से आवाज़ लगाकर बुला रहे हैं, तो कुछ होगा या नहीं ? लेकिन यह सब ओवरवाईज़पना ( सयानापन ) है । यदि प्रकृति को सहज करोगे तो काम होगा। सहज अर्थात् वर्क व्हाइल यू वर्क एन्ड प्ले व्हाइल यू प्ले । फिर ऐसा दिखाई देगा। ये सभी साथ चलने वाले। आप तो संपूर्ण प्रकार से साथ हैं और ये तो जुदाई