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सहजता
दादाश्री : यदि चार रविवार लगाम छोड़ दोगे तो पता चल जाएगा, आपको अनुभव में आ जाएगा, कर्ता-अकर्ता भाव।
सुबह उठते ही लगाम को हाथ में ले लेता है। भाई पकड़ना नहीं, छोड़ दे यहाँ से। हमारी लगाम तो हमेशा छूटी ही रहती है। हमारे हाथ में लगाम रहती ही नहीं। घोड़े चलते ही रहते हैं। आप भी ऐसा अभ्यास कभी कर सकते हो न? हमारा तो हमेशा के लिए होता है। लगाम छोड़ देनी है या छोड़ने में डर लगता है ?
करो एक दिन के लिए यह प्रयोग प्रश्नकर्ता : लगाम अर्थात् 'मैं करता हूँ' इस भाव को छोड़ देना
है?
दादाश्री : नहीं, लगाम अर्थात् 'मैं करता हूँ' वह भाव नहीं, सभी भाव। लगाम ही छोड़ देनी है। हर दिन लगाम ही पकड़ते हैं न। उस दिन लगाम छोड़ने के भाव पक्के किए, 'दादा, आपको यह लगाम सौंप दी, अब तो मैं ज्ञाता-दृष्टा हूँ।' तो फिर कुछ रहा ही नहीं न! उसके बाद तो पूरा दिन पता चल जाता है कि चाय मिलती है या नहीं मिलती? खाना मिलता है या नहीं? खाने में मिर्च मिलती है या नहीं, यदि मिर्च चाहिए तो? सब मिलता है। यह तो, मनुष्य को धीरज नहीं रहती न और ऐसा भान ही नहीं है न, 'मैं करता हूँ' तो होता है जबकि वर्ल्ड में संडास जाने की शक्ति वाला कोई व्यक्ति नहीं हुआ है। जब अटकती है तब पता चलता है कि यह मेरी स्वतंत्र शक्ति नहीं थी। उन डॉक्टरों को भी कब पता चलता है? जब अटकती है तब पता चल जाता है न? दूसरे डॉक्टर को बुलाना पड़ता है न? तब हम नहीं कहते, 'डॉक्टर, आप तो बहुत बड़े हो न!' तब कहे, 'नहीं! मुझे दूसरों को बुलाना पड़ता है' अर्थात् यह खुद की स्वतंत्र शक्ति नहीं है। अतः उस दिन कर्ता-अकर्ता दोनों भाव का पता चल जाता है।
वे पाँच कर्मेन्द्रियाँ और ज्ञानेन्द्रियाँ वे घोड़े के समान हैं, अब ये पाँच घोड़े चलते हैं। हाँकने वाले में समझ नहीं होने के कारण वह खिंचता रहता है तब घोड़े को ठोकर लग जाती है और गाड़ी उल्टी गिर जाती