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विज्ञान से पूर्णता की राह पर
स्टेशन कौन सा है? तब कहे, व्यवहार आत्मा सहज स्थिति में और देह भी सहज स्थिति में, वही अंतिम स्टेशन । दोनों अपने-अपने सहज स्वभाव में ।
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अब जो निश्चय आत्मा है वह सहज है, तो यदि व्यवहार को सहज करोगे तो दोनों एक हो जाओगे। फिर हमेशा के लिए परमात्मा बन जाओगे ।
प्रश्नकर्ता : वैसी सहजता की कल्पना करना मुश्किल है।
दादाश्री : हाँ, वह कल्पना, वैसी कल्पना तो नहीं होती न ! कल्पना में वह नहीं आता न! कल्पना का दायरा उसका सरकमफरेन्स (परिधि ) एरिया इतना छोटा रहता है, जबकि उसका तो बहुत बड़ा एरिया रहता है। प्रश्नकर्ता: दादा, आपने सभी को थोड़ा-थोड़ा, हर एक की शक्ति के अनुसार आत्मा का ऐश्वर्य बता दिया है।
दादाश्री : कितना बड़ा ऐश्वर्य बताया है ! देखो न, चेहरे पर कितना आनंद है, नहीं तो अरंडी का तेल चुपड़ा हो, ऐसा दिखाई देता है!
जो सहज हुए हो उनका एक ही वाक्य लोगों के लिए बहुत हितकारी होता है ! सहज कोई हुआ ही नहीं है न! सहजता का उपाय सिर्फ अपने यहाँ ही है । अब जितना सुधर जाएगा, सीधा हो जाएगा, उतना सही। सीधा हो गया तो सहज हो गया ।
सहजात्म स्वरूपी हैं 'ये' ज्ञानी
आत्मा तो सहज ही है, स्वभाव से ही सहज है, देह को सहज करना है। अर्थात् उसके परिणाम में दखल नहीं करना है। उसकी जो इफेक्ट है उसमें किसी भी प्रकार का दखल नहीं करना, उसे सहज कहा जाता है। परिणाम के अनुसार ही चलते रहे । दखल करना, वह भ्रांति । दखल करने वाला व्यक्ति मन में ऐसा मानता है कि ‘मैं कुछ करता हूँ'। 'मैं कुछ करता हूँ' वह भ्रांति है।
'यह मुझसे होगा और यह मुझसे नहीं होगा, मुझे इसका त्याग करना है', तब तक सब अधूरा है। त्याग करने वाला अहंकारी होता है । 'यह मुझसे नहीं होगा,' ऐसा कहने वाला भी अहंकारी है, और 'यह हम से हो जाएगा' ऐसा कहने वाला भी अहंकारी है । यह सब अहंकार ही है ।