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सहजता
जब तक व्यवहार में संपूर्ण रूप से तैयार नहीं हो जाते, तब तक संपूर्ण आत्मा प्राप्त नहीं होता। अर्थात् सहजात्म स्वरूप व्यवहार में, अर्थात् कि किसी का कोई आमने-सामने दखल ही नहीं। ऐसा होता है या ऐसा नहीं होता है, ऐसा कोई दखल नहीं। किसी में भी किसी प्रकार का दखल ही नहीं। सब अपने-अपने कार्य किए जाओ। कर्ता पुरुष जो कर रहा है, उसे ज्ञाता पुरुष निरंतर जाना ही करे। दोनों अपने-अपने कार्यों में रहे।
कृपालुदेव कहते हैं कि 'सहज स्वरूप से जीव की स्थिति होना, उसे श्री वीतराग मोक्ष कहते हैं'। उसी की प्राप्ति अपने महात्माओं को हो गई है। आपको भान तो हो गया है, लक्ष बैठ गया है। जो हो रहा है यदि उसमें दखल नहीं करो, तो वह सहज स्वरूप की स्थिति है। हमारी सहज स्वरूप ही हो गई है और आपको सहज स्वरूप होना है। लेकिन आपका वह पुद्गल बीच में आता है, उस पुद्गल को खपाना पड़ेगा। वैष्णव का वैष्णव पुद्गल रहता है, जैनों का जैन पुद्गल रहता है। उन सभी को खपाना पड़ेगा। यदि मेरे पास समझ लोगे तो खप जाएगा।
सहज स्वरूप की स्थिति होना अर्थात् पुद्गल अच्छा-बुरा है, उसे आपको नहीं देखना है। उसे अच्छा-बुरा मानने क्यों जाते हो? वह तो जो पूरण किया है वही गलन हो रहा है। आपको तो सिर्फ उसे जानने की ही ज़रूरत है।
आश्चर्यजनक कल्याणकारी 'यह' विज्ञान अर्थात् यह आप में पूर्ण रूप से प्रकट हो चुका है, इसलिए सभी क्रियाएँ हो सकती हैं। संसार की और आत्मा की सभी क्रियाएँ हो सकती हैं। दोनों अपनी-अपनी क्रिया में रह सकते हैं वीतरागता से, संपूर्ण वीतरागता में रहकर! ऐसा यह अक्रम विज्ञान है!
देखो आश्चर्य, कितना आश्चर्य है! पूरे दस लाख वर्षों में यह सब से बड़ा आश्चर्य है! बहुत सारे लोगों का कल्याण कर दिया है !