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'सहज' को देखने से, प्रकट होती है सहजता
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दादाश्री : पूर्ण हो जाने के बाद कोई पुरुषार्थ नहीं रहता। फिर बिल्कुल सहज भाव। और पुरुषार्थ क्या है ? ज्ञान होने के बावजूद भी असहज!
प्रश्नकर्ता : ज्ञान होने के बावजूद भी असहज? दादाश्री : असहज।
प्रश्नकर्ता : तो ज्ञानी पुरुष को उसका बंध पड़ता है क्या? उस बंध को उन्हें भुगतना पड़ता है ?
दादाश्री : हाँ, सामने वाले के कल्याण के लिए। उसका फल तो आएगा ही न। लेकिन वह फल बहुत उच्च प्रकार का आता है। वह ज्ञानावरण को हटा दे ऐसा फल आता है। जो थोड़ा-बहुत बाकी हो चार डिग्री का, उसके बाद दो डिग्री हटा देता है। उसके बाद एक डिग्री हटा देता है। अर्थात् यह जो 'ज्ञान देना' है, वह तो पुरुषार्थ है। वह प्रकृति नहीं है, वह पुरुषार्थ है। अर्थात् हमारा ज़्यादातर पुरुषार्थ रहता है।