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सहजता
दादाश्री : इसे पढ़ना सरल नहीं है, वह तो वीरों का काम है। सरल होने के बावजूद सरल नहीं हैं। कठिन होने के बावजूद भी सरल हैं। हम तो निरंतर इसी ज्ञान में रहते हैं, लेकिन भगवान महावीर के जैसे नहीं रह पाते। उनके जैसे तो वीर ही रह सकते हैं! हम में तो चार अंश (डिग्री) की कमी है। वहाँ पर तो उतना भी नहीं चलता! लेकिन दृष्टि तो वहीं की वहीं रहने वाली है।
तीर्थंकर भगवान निरंतर खुद के ज्ञान में ही रहते हैं। उनका परिणाम ज्ञानमय ही था। वे ज्ञान में कैसे रहते होंगे? जो पुरुष केवलज्ञान की सत्ता पर बैठे हों, उन्हें ऐसा कौन सा ज्ञान बाकी रहता होगा कि जिससे उन्हें उसमें रहना पड़ता है? तब कहे, वे खुद के पुद्गल में ही दृष्टि रखकर देखा करते हैं।
भगवान महावीर देखते ही रहते थे कि ये क्या करते हैं, और क्या नहीं! जब देवताओं ने खटमल के द्वारा उपद्रव किया, तो वे ऐसे करवट लेते और वैसे करवट लेते। उन्हें, वे खुद देखते थे। 'महावीर' ऐसे करवटें लेते हैं, वह शरीर का स्वभाव है (महावीर हो या कोई भी हो) सिर्फ अहंकारी लोग ही कुछ भी कर सकते हैं। खटमल तो क्या लेकिन जलाने पर भी वे हिलते नहीं क्योंकि उनकी पूरी आत्मशक्ति इसी में है। हाँ, उन्होंने ऐसा निश्चित किया है कि कुछ भी हो जाए, लेकिन हिलना ही नहीं है लेकिन देखो, आत्मशक्ति कितनी ! जबकि ये तो सहज भावी, केवलज्ञानी
और सभी ज्ञानी सहज भावी रहते हैं। वे रोते भी हैं, आँख में से पानी भी निकलता है, चीख-पुकार भी करते हैं। खटमल काटते हैं न, तो वे करवट बदलते हैं। ऐसे पलटते और वैसे पलटते। उन सब को वे देखा करते। पहले कर्म खपाने में गया। फिर देखने में गया, निरंतर देखते रहे। एक ही पुद्गल में दृष्टि रखते। सभी पुद्गल का जो है, वह एक पुद्गल में है। खुद के पुद्गल को ही देखना है कि जो विलय हो जाता है!
'ज्ञान' देना वह पुरुषार्थ प्रश्नकर्ता : ज्ञानी और तीर्थंकर के पुरुषार्थ में क्या अंतर रहता