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सहजता
में गया इसलिए संयोग छूट गया। संयोग में से खुद सहज में जा सकता है और सहज में जाने के बाद फिर संयोग छूट जाते हैं।
प्रश्नकर्ता : अब, वे संयोग भी सहज में जाते हैं क्या?
दादाश्री : नहीं, संयोग में से सहज में जाते हैं। संयोग सहज नहीं होते न! सहज अलग चीज़ है और संयोग अलग चीज़ है।
अंतर, 'करना पड़ता है' और 'बरतते हैं' उसमें
प्रश्नकर्ता : एक बार आपने सत्संग में कहा था कि एक स्टेज ऐसी आती है कि चंदूभाई करता है और हम उसमें ही तन्मयाकार होते हैं। दूसरी स्टेज ऐसी आती है कि चंदूभाई अलग और खुद अलग यानी यह कर्ता अलग और खुद अलग और तीसरी टॉप की स्टेज ऐसी है कि चंदूभाई क्या कर रहे हैं, उसे भी देखता है, आत्मा चंदूभाई को देखता है, वह समझाइए ज़रा।
दादाश्री : उसमें क्या समझना है? प्रश्नकर्ता : वह कौन सा स्टेज कहलाता है ?
दादाश्री : ऐसा है न, यदि देखने के कार्य में लगे हो तो वह देखने का कार्य सहज होना चाहिए। देखना, उसे करना पड़ता है, ज्ञातादृष्टा रहना पड़ता है इसलिए उसे भी जानने वाला ऊपर है। ज्ञाता-दृष्टा रहना पड़ता है। फिर, वह मैनेजर हो गया वापस। वापस उसका ऊपरी रहा। उस अंतिम ऊपरी को तो देखना नहीं पड़ता, सहज ही दिखाई देता है।
प्रश्नकर्ता : अर्थात् यह ज्ञाता-दृष्टा देखना पड़ता है, 'वह' कौन और 'इसे' भी देखने वाला है, वह कौन?
दादाश्री : 'इसे' भी देखता है, वह 'मूल' स्वरूप। जिसे देखना पड़ता है वह बीच वाला उपयोग। अर्थात् इसे भी जानने वाला, वह ठेठ अंतिम दशा में। जैसे कि आईने के सामने हम ऐसे बैठे हो तो हम सभी तुरंत आईने में दिखाई देते हैं न?