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सहजता
जलाई और उसके ऊपर मेरा अँगूठा रखा। मैंने कहा, यहाँ पर रखो। तब दो दियासलाई जलाई, दोनों जलती रही तब तक रहने दिया था । अहंकार क्या कुछ नहीं करता ? अहंकार सबकुछ कर सकता है लेकिन यह सहजता नहीं कर सकती।
वेदना में देह सहज स्वभाव
जो पर-परिणाम हैं या जो डिस्चार्ज स्वरूप से हैं, उसमें वीतरागता रखने की ज़रूरत है। दूसरा कोई उपाय ही नहीं है । वह तो जब भगवान महावीर के कान में कील ठोके थे न ! तब खाली वीतरागता ही रखने की ज़रूरत थी और जब वे कीलें खींचकर निकाल ली उस समय भी वीतरागता ही । फिर भले ही देह का कुछ भी हुआ, देह ने चीख-पुकार की होगी, उसे लोगों ने गलत माना। लेकिन ज्ञानी का देह तो हमेशा ही चीख-पुकार करता है, रोता है, सबकुछ करता है । यदि ज्ञानी का देह ऐसा स्थिर हो जाता हो, तो वे ज्ञानी नहीं हैं ।
प्रश्नकर्ता : सब लोग तो ऐसा ही मानते हैं कि ज्ञानी को थोड़ा ऐसा कहें तो वे हिलते नहीं, टस से मस नहीं होते ।
दादाश्री : लोगों को लौकिक ज्ञान है । संसार लौकिक के बाहर निकला ही नहीं है। यदि ऐसे बैठे और जलकर मर रहा हो तो लोग उसे ज्ञानी कहेंगे। लेकिन ज्ञानी को तो पता चल जाता है कि ये ज्ञानी हैं, वे ऐसे हिल जाएँगे। जबकि अज्ञानी नहीं हिलते क्योंकि अज्ञानी तय करता है कि मुझे हिलना ही नहीं है। ज्ञानी में तो अहंकार ही नहीं होता और वे सहज होते हैं।
सहज उसे कहते हैं कि जैसा शरीर का स्वभाव है न, वह वैसा ही होता रहे ऊँचा- नीचा सब ! शरीर ऊँचा - नीचा होता हो, वह सहज और आत्मा में पर-परिणाम नहीं, वह सहज । सहज आत्मा अर्थात् स्वपरिणाम और शरीर ऊँचा - नीचा होता है, वह अपने स्वभाव में ही उछलकूद करता है, ऐसा । ऐसे दियासलाई जलती हो न, तो फिर नीचे फेंकने के बाद उसका छोर ऊँचा होता है । वह क्या है ? वह सहज परिणाम है।