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अंत में प्राप्त करना है अप्रयत्न दशा
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की बनी हुई है। वह अपने आप चलती है। भाई, रात को हाँडवा (गुजराती व्यंजन) खाकर सो गया, उसमें भीतर कितना पाचकरस गिरा, कितना पित्त गिरा, कितना बाईल गिरा, उसकी जाँच करने जाता है क्या तू? वहाँ तू कितना एलर्ट रहता है, भाई? वह तो, सुबह अपने आप ही सभी क्रियाएँ होकर, पानी, पानी की जगह से और संडास, संडास की जगह से अलग होकर निकल जाता है और सारा सत्व (सार) खून में समा जाता है। तो क्या वह सब तू चलाने गया था? अरे भाई, जब यह अंदर का अपने आप चलता है तो क्या बाहर का नहीं चलेगा? 'तू करता है !' ऐसा किसलिए मानता है? वह तो चलता रहेगा। रात को नींद में शरीर सहज रहता है। ये भाई तो असहज! दिन में तो लोग ऐसा कहते हैं कि मैं श्वास लेता हूँ, थोड़ी श्वास लेता हूँ, ऊँची श्वास लेता हूँ और नीची भी लेता हूँ तो भाई, रात को कौन श्वास लेता है ? रात में जो श्वासोच्छ्वास चलते हैं वे नॉर्मल हैं। उनसे ही सब अच्छे से पाचन होता है।
सहज भाव में बुद्धि का उपयोग नहीं होता। सुबह बिस्तर से उठे तो ब्रश करते हो, चाय पीते हो, नाश्ता करते हो, वह सब सहज भाव से होता ही रहता है। उसमें मन-बुद्धि-चित्त और अहंकार का उपयोग नहीं करना पड़ता। जिसमें इन सभी का उपयोग होता है, उसे असहज कहते हैं, विकल्पी भाव कहते हैं।
अगर आपको कोई चीज़ चाहिए और सामने वाला व्यक्ति आकर कहे कि, 'यह चीज़ लो।' तो वह सहज भाव से मिला कहलाएगा। __आपने कुछ सोचा भी नहीं हो। आपको ज़रूरत हो लेकिन उसके पास से लेने का आपका इरादा न हो। फिर भी आसानी से मिल जाता है, लोग ऐसा नहीं बताते ? सहज अर्थात् अप्रयत्न दशा। किसी प्रकार का प्रयत्न नहीं।
क्या करना चाहिए और क्या नहीं? सबकुछ सहज रूप से चल रहा है जब ऐसा भान होगा तब आत्मज्ञान होगा। अब, सहज अर्थात् क्या? जो बगैर प्रयत्न के चल रहा