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करने जैसा ही नहीं रहेगा। अगर एक ही महीने तक सहज रहेगा तो बहुत हो गया।
सहजता
आदर - अनादर नहीं, वह सहज
प्रश्नकर्ता : अगर एक दिन सहज रूप से निकालना हो तो कैसे निकालेंगे? उसका वर्तन कैसा होना चाहिए ?
दादाश्री : सहज प्राप्त संयोगों, बाहर और अंदर के जो मन के, बुद्धि के संयोगों से पर होता है, तब सहज प्राप्त होता है । अंदर जो मन वगैरह सभी चीख-पुकार करते हैं, उन सभी से अलग रहकर खुद यह सब देखे - जानें और बाहर सहज प्राप्त संयोग । यदि दो बजे तक खाना नहीं मिला तो कुछ बोलना नहीं। तीन बजे, साढ़े तीन बजे मिले तो उस समय, जब मिले तब ...
सहज रूप से जो भी मिले चाहे वह खीर-पूरी और मालपुआ हो, उसे खा लेना । जितने खा सको उतने । उसके बाद यदि सब्ज़ी-रोटी मिली हो तो भी खा लेना। मालपुआ और खीर का आदर नहीं करना और रोटी का अनादर नहीं करना । अब, एक का आदर करता है और दूसरे का अनादर करता है, काम ही क्या है ?
प्रश्नकर्ता : दादा, सहज होना, सहज होना, वह सब पढ़ा तो बहुत था लेकिन सहज कैसे हो सकते हैं, वह आपने बताया कि यदि खीर मिले तो खाना और रोटी मिले तो भी खाना, वह आपकी बात पर से फिर वह चीज़ पता चली कि सहज किस तरह से होना है, वह समझ में आ जाता है।
दादाश्री : एक का अनादर नहीं और दूसरे का आदर नहीं, वह सहज। जो सामने से आ मिला उसे सहज कहते हैं । फिर भले ही ऐसा कहे कि भाई, तला हुआ है, तला हुआ है, नुकसान करेगा न ? भाई, तला हुआ तो विकृत बुद्धि वालों को नुकसान करता है । सहज को कुछ नुकसान नहीं करता। सामने से आ मिला उसे खाओ । सामने से आ मिला दुःख भुगत लो, सामने से आ मिला सुख भी भुगत लो। ज्ञानी को तो सुखदुःख होता ही नहीं न! लेकिन सामने से आया हुआ ।