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सहजता
प्रश्नकर्ता : कैसे जानना है?
दादाश्री : यह अभी क्या होता है, उसे देखते रहना है और जानते रहना है, बस।
व्यवस्थित को समझने से प्रकट होती है सहजता अब, आप आत्मा ही बन गए तो फिर रहा क्या?
प्रश्नकर्ता : अर्थात् जब आत्मा शुद्ध हो जाता है तो उसकी दशा कैसी रहती होगी? तो कहा कि पूरी अप्रयत्न दशा उत्पन्न हो जाती है। चप्पल पहनने का भी खुद का प्रयत्न नहीं होता।
दादाश्री : अभी तो यह अप्रयत्न दशा ही है। प्रयत्न तो जब अहंकार रहता है तब कहलाता है।
प्रश्नकर्ता : आपने कहा कि गाडी से जाने के लिए जब रेलवे स्टेशन गए हो तब स्टेशन पर जाकर देखते हैं कि गाडी आ रही है या नहीं? यों सिर झुकाकर नहीं देखते।
दादाश्री : वैसे देखने में क्या हर्ज है ? उसके बाद खुद को पता चलता है कि यह थोड़ी गलती हो गई। यानी सहज बनना है ऐसा भाव रखना है। अपनी दृष्टि कैसी रखनी है ? सहज। उस समय क्या हो रहा है, उसे देखना है। ध्येय क्या रखना है कि दादाजी की सेवा करनी है
और भाव सहज रखना है। दादाजी की सेवा मिलनी, वह तो बहुत बड़ी चीज़ है न? वह तो जब बहुत ज्यादा पुण्य हो तब मिलती है, वर्ना नहीं मिलती न? ऐसे तो हाथ ही नहीं लगा सकते न? एक बार हाथ लगाने मिला तो भी बहुत बड़ा पुण्य कहलाएगा और यदि मिल गया तो मन में समझना कि बहुत दिनों बाद प्राप्त हुआ। उतना भी क्या कम है ? बाकी, किसी भी तरह से शुद्ध उपयोग में रहना है।
प्रश्नकर्ता : सहज तो तभी होते हैं न, जब संपूर्ण रूप से विज्ञान अंदर खुला हो जाता है तभी सहज हो सकते हैं न?
दादाश्री : जब 'व्यवस्थित' संपूर्ण रूप से समझ में आता है तब