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सहजता
किसी भी व्यक्ति ने खुद की बुद्धि से एटिकेट नहीं सीखा है। बुद्धि रहती ही नहीं न! ये एटिकेट तो सभी नकल हैं। इसीलिए यह रोग घुस गया है। इस रोग को निकालने के लिए मैंने यह किया।
प्रश्नकर्ता : वह ठीक है दादा। हम जो टाई पहनते हैं उसे समझकर कभी भी नहीं पहनते। सभी पहनते हैं, इसलिए हम पहनते हैं।
दादाश्री : सब ने देखकर ही ये एटिकेट सीखे हैं। हिन्दुस्तान में सब ने जो एटिकेट सीखे हैं न, और जब तक वे एटिकेट हैं तब तक धर्म जैसी चीज़ ही नहीं है। जहाँ कुछ भी एटिकेट है वहाँ धर्म जैसी चीज़ ही नहीं। जहाँ सहजता है वहाँ धर्म है।
हल लाओ ऐसे अपने सत्संग में ये जो बोलते हैं, करते हैं, वे सब बाहर से आए हुए लोग, 'उनके लक्ष में ऐसा अलग ही रहता है कि ज्ञान वाले कैसे रहते हैं' जब वे ऐसा देखते हैं तब उनके मन में ऐसा होता है कि ज्ञान किसे कहा जाता है? लेकिन उन्हें यह समझ में नहीं आता कि ये लोग ज्ञान ग्रहण कर रहे हैं और अज्ञान को छोड़ रहे हैं। क्योंकि हम ऐसे नहीं थे कि कभी ताली बजाए लेकिन वह मान्यता गलत है ऐसा माना था, उसके प्रति तिरस्कार रहता था। अब, उस मान्यता का हम समभाव से निकाल (निपटारा) कर देते हैं। हम ताली बजाएँगे तो छूट जाएँगे।
यदि तिरस्कार रहता हो तो निकाल देना और राग आता हो तो उसे भी निकाल देना। दोनों को यहाँ पर निकाल देना है। लोगों को इस पर तिरस्कार रहता है या नहीं? तो क्या उस तिरस्कार को साथ में लेकर जाना है? इसलिए यहाँ पर ही निकाल देना है, प्लस-माइनस कर देना
वर्ना, हमारे यहाँ बाहर वाले तो ऐसा ही कहते हैं कि वापस यह सब क्या कर रहे हो? इतने पढ़े-लिखे होकर दादाजी के पास क्या रंग लगा है? आप यह ग्रहण किया हुआ माल रोंग बिलीफें, उनका निकाल कर रहे हों। उन बेचारों को पता ही नहीं है।