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त्रिकरण ऐसे होता है सहज
अज्ञान कहलाता है, ज्ञान नहीं कहलाता है। वह क्रियाकारी नहीं होता, परिणाम नहीं पाता। उसके बाद कहता है कि मैं जानता हूँ लेकिन होता नहीं। मैं जानता हूँ लेकिन होता नहीं। ऐसा रटता रहता है। आपने किसी व्यक्ति को ऐसे बोलते हुए कभी सुना है क्या?
प्रश्नकर्ता : बहुत से बोलते रहते हैं।
दादाश्री : सभी ऐसा कहते हैं, यही कहते हैं। यदि जान चूका है तो अवश्य होना ही चाहिए और यदि नहीं होता है तो समझना कि उसने जाना ही नहीं। जबकि सोचा हआ ज्ञान, वह ज्ञान नहीं कहलाता। वह तो जड़ ज्ञान कहलाता है। जड़ विचारों से जो उत्पन्न होता है, वह तो जड़ है। विचार ही जड़ है।
प्रश्नकर्ता : यह जो ज्ञान है, वह सहज रूप से आता होगा या सहज रूप से होता होगा, उसका क्या कारण है ?
दादाश्री : उसने पूर्व के जन्मों में जो भी माल भरा हैं न, वह सब समझकर भरा है। वह सहज रूप से निकलता है। समझकर व जानकर भीतर माल भरा है। सोचा हुआ काम में नहीं आता। अगर समझकर भरा हो तो काम में आता है।
प्रश्नकर्ता : अगर समझकर भरा हो तो वह सहज में आ जाता
है?
दादाश्री : अगर सहज में आएगा तभी वह विज्ञान कहलाएगा। वर्ना, विज्ञान ही नहीं कहलाएगा।
निरालंब होने पर, प्रज्ञा पूर्ण क्रियाकारी प्रश्नकर्ता : जब विचार करने वाला विचार करता है तब देखने वाला कौन रहता है?
दादाश्री : देखने वाला आत्मा है। वास्तव में तो अपनी जो प्रज्ञाशक्ति है न, वही सब देखने वाली है। वही आत्मा है लेकिन वह आत्मा खुद नहीं देखता। खुद की जो शक्ति है, वह काम करती है।