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अंत:करण में दखल किसकी?
क्रोध-मान-माया-लोभ कभी भी खत्म नहीं होते। चाहे कितने भी कष्ट सह लें, कितनी भी मेहनत कर लें तो भी वह अहंकार नहीं जाता।
सहज रूप से अहंकार बिल्कुल चला जाता है। उसका उपाय ही सहज है! लेकिन खुद सहज नहीं कर सकता न ! जो खुद विकल्पी है, वह निर्विकल्पी कैसे बन सकता है? वह तो, जिन्हें अकर्ता पद प्राप्त हो चुका है, जो मुक्त पुरुष हैं यदि हम उनके पास जाएँगे तो वहाँ वे सहज रूप से यह काम कर देंगे।
अर्थात् अहंकार, वह सहज रूप से चला जाता है क्योंकि वह सहज रूप से ही उत्पन्न हुआ है। वह मेहनत से उत्पन्न नहीं हुआ है और खत्म हो जाता है, वह भी सहज रूप से! बल्कि जितनी मेहनत करते हैं न, उतना अहंकार बढ़ता जाता है !
__यह जो संसार की क्रिया हो रही है, उसमें कोई दिक्कत नहीं है लेकिन उसमें जो चंचलता उत्पन्न होती है, उसमें दिक्कत है। क्रिया बंद नहीं करनी है। बंद होगी भी नहीं। उसमें जो चंचलता उत्पन्न हो जाती है, जो सहजता टूट जाती है, उससे कर्म बंधते हैं। यह जो क्रिया करते हैं उसमें कोई दिक्कत नहीं है, सभी क्रियाओं में कोई दिक्कत नहीं हैं लेकिन उसमें चंचलता नहीं होनी चाहिए।
ज्ञान प्राप्ति के बाद उनमें चंचलता नहीं रहती, सहजता रहती है। ज़रा सा भी खुद का धक्का नहीं होता, बाहर की क्रिया अपने आप ही होती रहती है।
प्रकृति और आत्मा के बीच की चंचलता चली गई, उसे साहजिकता कहा जाता है।
कर्म बंधन किससे? प्रश्नकर्ता : जो नए कर्म बंधते हैं, वे बाह्य प्रकृति के कारण ही बंधते हैं?