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सहजता
दादाश्री : वे जो नए कर्म बंधते हैं, वे तो अपने अहंकार और आज की अपनी समझ और ज्ञान के आधार से बंधते हैं। कर्म उल्टे और सीधे दोनों तरह के बंधते हैं और बाद में प्रकृति हमें ऐसे संयोगो में रखती है। यह बहुत सूक्ष्म बात है।
प्रश्नकर्ता : सहज रूप से जो क्रिया होती है, उसमें कोई कर्म नहीं बंधता?
दादाश्री : बंधता ही नहीं! यह आपके डिस्चार्ज में भी कर्म नहीं बंधता। डिस्चार्ज अहंकार ऐसा है कि वह कर्म नहीं बाँध सकता। वह अहंकार कर्म से छुड़वाने के लिए है। बंधे हुए कर्मों को छुडवाने के लिए वह अहंकार है। जो बंधे हुए हैं, उन्हें छुड़वाने के लिए कोई तो चाहिए न? अतः वह छुड़वाने वाला अहंकार है।
जहाँ देहाध्यास छूटा वहाँ सहजता
प्रश्नकर्ता : अब, आत्मभान में आने के बाद में उसका जो सारा व्यवहार होता है, क्या वह सहज व्यवहार होता है ?
दादाश्री : खुद के भान में आ जाने के बाद व्यवहार में कुछ लेना-देना ही नहीं रहा न! व्यवहार चलता ही रहता है।
प्रश्नकर्ता : अर्थात् उसका व्यवहार उदय रूप होता है क्या?
दादाश्री : बस, और कुछ होता ही नहीं। कर्तापन छूटने के बाद आत्मभान में आता है। कर्तापन छूटा तो उदय स्वरूप रहा। फिर यह अपने आप चलता है और वह भी अपने आप चलता है, वे दोनों अपनी अपनी तरह से चलते ही रहते हैं।
देहाध्यास चले जाने से आत्मा, अपने स्वभाव में रहता है और देह, अपने स्वभाव में रहता है। देहाध्यास में दोनों का मेल था, एकाकार होने का। वह देहाध्यास चला गया, इसलिए यह देह, अपने काम में और आत्मा, अपने काम में, उसे सहजता कहते हैं।