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सहजता
उसने देखा तो बस हो गया। आप ज्ञाता-दृष्टा बन गए। अर्थात् वह जो प्रज्ञा है, मूल आत्मा का भाग, उससे सबकुछ देख सकते हैं। आप में प्रज्ञा उत्पन्न हो चुकी है लेकिन जब तक निरालंब नहीं होंगे तब तक प्रज्ञा पूर्ण रूप से काम नहीं करेगी। अभी तो आप ग्रंथियों में ही रहते हो न! जब ये ग्रंथियाँ खत्म हो जाएँगी तब काम आगे बढ़ेगा।
प्रश्नकर्ता : तब क्या सोचने वाला आत्मा नहीं है?
दादाश्री : मूल आत्मा ने सोचा ही नहीं। आत्मा ने कभी भी सोचा ही नहीं है। वह व्यवहार आत्मा की बात है। ऐसा है, व्यवहार आत्मा को निश्चय आत्मा से देखते रहना है। व्यवहार आत्मा क्या कर रहा है, उसे देखते रहना है।
प्रश्नकर्ता : एक साथ दो क्रियाएँ हो सकती हैं क्या?
दादाश्री : एक ही क्रिया हो सकती है। क्रिया तो अपने आप सहज रूप से ही होती रहती है। हमें देखने का पुरुषार्थ करना है। दूसरा सब तो होते ही रहता है। अगर इसमें आप नहीं देखोगे तो आपका देखने का बाकी रह जाएगा इसलिए (हमें) देखने वाले को (देखने का) पुरुषार्थ करना है। वह तो होता ही रहता है। फिल्म तो चल ही रही है। उसमें आपको कुछ नहीं करना पड़ता। वह अपने आप सहज रूप से चलती रहती है।
___ जैसे-जैसे विचारों को ज्ञेय बनाओगे वैसे-वैसे ज्ञाता पद मज़बूत होता जाएगा। आप विचारों को ज्ञेय स्वरूप से देखो, वह शुद्धात्मा का विटामिन है। जिसे विचार ही नहीं आते, वह क्या देखेगा? फिर उसे विटामिन किस तरह से मिलेंगे?
मन वश होता है, ज्ञान से जब तक 'मैं चंदूलाल हूँ', वह ज्ञान है, वह भान है तब तक मन के साथ लेना-देना है। तब तक मन के साथ तन्मयाकार होता है। अब हम शुद्धात्मा बन गए तो मन के साथ लेना-देना ही नहीं रहा। ज्ञाता-दृष्टा पद आ गया इसलिए मन वश हो गया कहा जाएगा।