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सहजता
सोचना तो डिस्चार्ज है, वह अपने आप होता ही रहता है यदि थोड़ीबहुत बात हुई तो अपना काम हो जाता है।
सहज भाव से व्यवहार __ हम जो कुछ भी बोलते हैं, यदि उसे सोचकर बोलेंगे न तो? एक भी अक्षर नहीं बोल पाएँगे, बल्कि उल्टा ही निकलेगा। जो लोग सोचविचार करके कोर्ट में गए न, उन्होंने गवाही भी गलत दी। बहुत सोचविचार करके गया कि ऐसा कहूँगा और ऐसा कहूँगा, इस तरह से सोचकर फिर कोर्ट में जाता है। उस समय वह क्या बोलेगा?
प्रश्नकर्ता : 'व्यवस्थित' में जो बोलना है वही बोलेगा।
दादाश्री : उसका व्यवस्थित ही सब अव्यवस्थित हो चूका है, घोटाला कर देता है। अगर बगैर सोचे जाएगा न तो ठीक से बोल पाएगा। आत्मा की अनंत शक्तियाँ हैं। वहाँ पर पूर्व योजना करने की ज़रूरत ही नहीं रहती। ___मानो कि आपको वकील ने कहा हो, आपको गवाही देने के लिए कोर्ट में जाना है, देखो! ऐसा बोलना है, ऐसा बोलना है। उसके बाद आप उसे बार-बार याद करो कि ऐसा कहा, ऐसा कहा, ऐसा बोलने के लिए कहा है, और उसके बाद वहाँ बोलने जाओगे तो कुछ और ही बोलोगे। इसलिए सहज भाव पर छोड़ दो। सहज की इतनी अधिक शक्ति है! यह सब हमारा सहज ही आप देखते हो न, है या नहीं? जब आप जवाब माँगते हो तब हम जवाब देते हैं या नहीं? जवाब हाज़िर ही रहता है। वर्ना, आपका कुछ काम नहीं होगा।
__ अंतर, समझने और सोचने में सोचने से, सोचकर जो कुछ भी कर्म किया जाता है, उससे अज्ञान उत्पन्न होता है और निर्विचार से ज्ञान होता है। वह सहज होता है ! सोचकर किया गया, वह ज्ञान नहीं कहलाता। विचार अर्थात् वह सब मृत ज्ञान कहलाता है जबकि यह सहज, यह विज्ञान कहलाता है। यह चेतन होता है। कार्यकारी होता है जबकि सोचकर किया गया सबकुछ