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सहजता
हो जाए, उसे ‘प्रिकॉशन' कहते हैं । अब इसमें 'प्रिकॉशन' लेने वाला
कौन रहा ?
दिन के उजाले में आप ठोकर खा जाते हो ! उसमें 'प्रिकॉशन ' लेने वाले आप कौन होते हो ? क्या इंसान 'प्रिकॉशन' ले सकता है, जिसमें संडास जाने की भी स्वतंत्र शक्ति नहीं है, वहाँ ?
सारा संसार ‘प्रिकॉशन' लेता है, उसके बावजूद भी क्या 'एक्सिडेन्ट नहीं होते?' जहाँ ‘प्रिकॉशन' नहीं लेते वहाँ क्या एक्सिडेन्ट नहीं होते ! ‘प्रिकॉशन' लेना, वह एक प्रकार की चंचलता है, कुछ ज़्यादा ही चंचलता है । उसकी ज़रूरत ही नहीं है। संसार अपने आप सहज रूप से चलता ही रहता है।
प्रश्नकर्ता : कर्ता भाव से सावधानी नहीं, लेकिन 'ऑटोमैटिक' तो हो जाती है न ?
दादाश्री : वह तो अपने आप हो ही जाती है ।
प्रश्नकर्ता: कर्ता नहीं, लेकिन यदि सहज रूप से विचार आ जाए तो फिर विवेक बुद्धि से करना है, ऐसा ?
दादाश्री : नहीं, अपने आप ही सबकुछ हो जाता है 'आपको ' 'देखते' ही रहना है कि क्या होता है ! अपने आप ही सबकुछ हो जाता है ! अब, बीच में आप कौन हो ? वह मुझसे कहो। आप 'शुद्धात्मा' हो या 'चंदूलाल' हो ?
प्रश्नकर्ता : आप पूछ रहे हो कि बीच में आप कौन हो ? तो बीच में तो मन है न ?
दादाश्री : मन को हमने कहाँ मना किया है ? मन में तो अपने आप कुदरती रूप से ही विचार आते रहते हैं और कभी विचार नहीं भी आते।
ऐसा है, मन तो अंतिम जन्म में भी हर क्षण चलता रहता है, सिर्फ, उस समय गाँठों वाला मन नहीं होता, जैसा उदय आए वैसा होता है।