________________
सहजता
बिलीफ की कुछ गाँठे पड़ जाती हैं अगर वे छूट जाएँ तो मन बंद हो जाएगा?
दादाश्री : ऐसा कुछ नहीं है, मन तो चलता ही रहता है। मन तो अपने आप चलता है। फिल्म अपने आप चलती ही रहती है !
प्रश्नकर्ता : जैसे मन कुदरती रूप से चलता रहता है तो क्या वाणी बोलते समय भी ऐसा ही होता है ?
दादाश्री : वाणी भी कुदरती रूप से ही निकलती रहती है। प्रश्नकर्ता : और किसी भी प्रकार का व्यवहार (वर्तन)? दादाश्री : व्यवहार भी कुदरती रूप से ही चलता रहता है।
जहाँ निर्तन्मयता वहाँ निरोगिता शरीर-मन-वाणी की जितनी निरोगिता उतनी आत्मा की सहजता।
प्रश्नकर्ता : यह शरीर-मन-वाणी की निरोगिता अर्थात् किस तरह से निरोगिता?
दादाश्री : व्यवहार आत्मा के सहज होने के बाद जो वाणी निकलती है, वह निरोगी निकलती है। जिनकी वाणी निरोगी होती है उनका आत्मा सहज होता है। यह हम जो कुछ भी बोलते हैं न, वह सब निरोगी कहलाता है। अर्थात् भीतर आत्मा सहज ही रहता है और वह सहजात्म स्वरूप परम गुरु कहलाता है। ऐसे सहजात्म स्वरूप की भक्ति करना। दोनों अलग, खुद भीतर दखल नहीं करता। दखल की वजह से सहजता चली गई।
प्रश्नकर्ता : लेकिन निरोगी वाणी अर्थात् राग-द्वेष बगैर की वाणी, दादा?
दादाश्री : हाँ, बिल्कुल राग-द्वेष बगैर की। प्रश्नकर्ता : तो मन को निरोगी कैसे बनाना है, दादा।