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त्रिकरण ऐसे होता है सहज
दादाश्री : मन तो खुद का नहीं है इसलिए मन तो अपने आप डिस्चार्ज होता रहता है । जब भीतर एकाकार हो जाता है तब रोग होता है । यदि एकाकार ही नहीं होगा तो रोगी कैसे होगा ? भले ही कितना भी टेढ़ा हो या उल्टा हो, फिर भी भीतर टेढ़े या उल्टे की कीमत नहीं है। अच्छा-बुरा तो समाज के अधीन है। भगवान के यहाँ कुछ है ही नहीं। भगवान तो कहते हैं कि यह सब दृश्य है, अच्छा-बुरा करना ही नहीं। दृश्य को देखना है, ज्ञेय को तो ज्ञान से जानना है T
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प्रश्नकर्ता : दादा, लेकिन लौकिक दृष्टि से, अच्छे-बुरे के विचार आ जाते हैं उसकी वजह से कभी किसी के प्रति द्वेष भी हो जाता है ।
दादाश्री : नहीं, वह तो मन में होता है, उसे तो आप जानते हो न! वह जो भरा हुआ माल है, वह निकलता है । उसे आपको देखते रहना है । भीतर पूछकर नहीं भरा था । जो निकल गया, वह दोबारा नहीं आता और यदि अब थोड़ा-बहुत होगा तो आएगा लेकिन बाद में नहीं आता । जितना माल पाइप में भरा है उतना ही आएगा ।
प्रिकॉशन लेना या नहीं ?
प्रश्नकर्ता : सहज भाव से सोचें कि यदि बरसात हो जाए तो ऐसा करेंगे, ऐसा जो होता है, तो क्या वह विकल्प कहलाता है ? सोचविचार करने के बाद जो हुआ, वह ठीक है लेकिन सोच-विचार करना, क्या वह दखल कहलाता है या विकल्प कहलाता है ?
दादाश्री : जिन्होंने 'ज्ञान' नहीं लिया है, उनके लिए तो सभी विकल्प ही कहलाते हैं । जिन्होंने 'ज्ञान' लिया है न, वे समझ जाते हैं । उन्हें फिर विकल्प नहीं रहते । शुद्धात्मा के रूप में 'हमें' जरा भी सोचविचार नहीं करना पड़ता। जो अपने आप आते हैं, उन विचारों को है
जानना
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प्रश्नकर्ता : इसका अर्थ ऐसा हुआ कि कोई 'प्रिकॉशन' ही नहीं लेना है ?
दादाश्री : 'प्रिकॉशन ' ( सावधानी) होते होंगे ? जो अपने आप