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आज्ञा का पुरुषार्थ बनाता है सहज
आगे का विचार उसे परेशान कर रहा हो तब 'व्यवस्थित' कह दें तो वह बंद हो जाएगा। अतः अपना देखना वापस शुरू रहता है। उस समय कोई फाइल परेशान कर रही हो तो समभाव से निकाल करने के बाद भी अपना वह शुरू रहता है। इस तरह से आज्ञा ज्ञाता-दृष्टा के पद में रखती है।
हमारी आज्ञा में रहना, वह पुरुषार्थ है। पुरुष (आत्मा) बनने के बाद और क्या पुरुषार्थ है ? और यदि आज्ञा का फल आ चुका हो, तो खुद बगैर आज्ञा के सहज स्वभाव में रह सकता है। वह भी पुरुषार्थ कहलाता है, बहुत बड़ा पुरुषार्थ कहलाता है। यह आज्ञा से पुरुषार्थ है जबकि वह स्वाभाविक पुरुषार्थ है !
प्रश्नकर्ता : स्वाभाविक पुरुषार्थ में आ जाने के बाद, वह पुरुषार्थ करने की ज़रूरत है क्या?
दादाश्री : उसके बाद ज़रूरत नहीं है न। वह तो अपने आप छूट जाता है।
प्रश्नकर्ता : जब ज्ञानी मिलते हैं तब स्वाभाविक पुरुषार्थ उत्पन्न होता है न?
दादाश्री : हाँ, स्वाभाविक उत्पन्न होता है न! पहला आज्ञा रूपी पुरुषार्थ, उसमें से फिर स्वाभाविक पुरुषार्थ उत्पन्न होता है।
अपनी पाँच आज्ञा सहज होने के लिए दी हैं। इन आज्ञा से पुण्य बंधता है। उससे एक या दो जन्म होते हैं। यदि हमारी आज्ञा का पालन करेंगे तो निरंतर सहज समाधि रहेगी।