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आज्ञा का पुरुषार्थ बनाता है सहज
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यों पाँच वाक्य तो बहुत ज़बरदस्त वाक्य हैं। ये वाक्य, समझने के लिए तो बेसिक हैं, लेकिन बेसिक बहुत कठिन है। धीरे-धीरे समझ में आते जाएँगे। ऐसे दिखने में सरल लगते हैं, हैं भी सरल, लेकिन दूसरे बहुत अंतराय हैं न! मन में विचार चलते रहते हैं, भीतर उथल-पुथल चलती रहती है, अकुलाहट होती रहती है, तो वह किस तरह से रिलेटिव और रियल देखेगा?
पूर्व कर्म के धक्के... प्रश्नकर्ता : दादा, आपकी जो पाँच आज्ञा हैं, उनका पालन करना थोड़ा मुश्किल है या नहीं?
दादाश्री : मुश्किल इसलिए है कि हमारे जो पिछले कर्म हैं, वे परेशान करते रहते हैं। पिछले कर्मों की वजह से आज खीर खाने को मिली। अब खीर ज्यादा खा ली, उसकी वजह से डोजिंग हो गया इसलिए आज्ञा का पालन नहीं हो पाया। अब यह अक्रम है। क्रमिक मार्ग में तो क्या करते हैं कि खुद सभी कर्मों को खपाते-खपाते आगे बढ़ते हैं। खुद कर्म को खपाकर, अनुभव लेकर और भुगतकर फिर आगे बढ़ते हैं। जबकि यह कर्म को खपाए बगैर की बात है। इसलिए हम ऐसा कहते हैं कि 'भाई, इन आज्ञा में रहो और यदि नहीं रह पाए तो चार जन्म ज़्यादा लगेंगे, उसमें क्या नुकसान होने वाला है?
प्रश्नकर्ता : वे आज्ञा भी कितनी ही बार सहज रूप से रहती हैं ?
दादाश्री : धीरे-धीरे सभी सहज होती जाती हैं। जिसे पालन करनी है, उसके लिए सहज हो जाती है। इसलिए फिर खुद का मन ही उस, साँचे में ढल जाता है। जिसे पालन करनी है और जिसका निश्चय है, उसके लिए कोई परेशानी है ही नहीं। यह तो सब से उच्च, सरल विज्ञान है और निरंतर समाधि रहती है। यदि गाली दे तो भी समाधि नहीं जाती, नुकसान हो तब भी समाधि नहीं जाती, घर को जलता हुआ देखे तो भी समाधि नहीं जाती।
प्रश्नकर्ता : प्रज्ञाशक्ति का इतना विकास होता है कि सभी आज्ञा उसमें समा जाती हैं?