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सहज 'लक्ष' स्वरूप का, अक्रम द्वारा
जहाँ प्रयत्न वहाँ अनुभव नहीं क्रमिक मार्ग में कितना प्रयत्न करते हैं, तब जाकर आत्मा के लक्ष का पता चलता है! वैसा लक्ष तो रहता ही नहीं। उसे खुद को लक्ष में रखना पड़ता है। जैसे कि व्यापार में होता है न, व्यापार की बातें हमें लक्ष में रखनी पड़ती हैं, उसी प्रकार से आत्मा को लक्ष में रखना पड़ता है कि आत्मा ऐसा है! इस तरह जब उसे प्रतीति बैठेगी तभी ऐसा लक्ष में रह पाएगा। उसे गुणों पर प्रतीति बैठती है। जबकि अपना तो यह आत्मानुभव कहलाता है, क्योंकि सहजता को ही अनुभव कहते हैं, जो कि अपने आप प्राप्त होता है। जिसके लिए प्रयत्न करना पड़े, उसे अनुभव नहीं कहेंगे। क्रमिक में उन्हें प्रतीति वगैरह लानी पड़ती है। प्रतीति के लिए प्रयत्न करना पड़ता है।
लेकिन आपका जो आत्मानुभव है, वह अंश अनुभव है और अक्रम द्वारा वह आपको सहज रूप से प्राप्त हो चुका है न, इसलिए आपको उससे लाभ होता है लेकिन अभी जैसे-जैसे प्रगति करते जाओगे, वैसेवैसे अनुभव बढ़ता जाएगा। जैसे-जैसे जागृति उत्पन्न होगी, उसकी बाद पूरी बात समझनी पड़ेगी। परिचय में रहकर ज्ञान समझ लेना है।
प्रश्नकर्ता : ज्ञान को स्थिर करने के लिए कौन से साधन अपनाने पड़ते हैं?
दादाश्री : साधन नहीं अपनाने हैं, ज्ञान को स्थिर करने के लिए सिर्फ समझने की ही ज़रूरत है। करने से स्थिर नहीं होगा। जहाँ करना पड़े, वहाँ सहजता चली जाएगी, स्थिर नहीं हो पाएगा। समझना पड़ेगा तभी स्थिर होगा।
सहज ध्यान, वह है केवल दर्शन प्रश्नकर्ता : क्या शुद्धात्मा को ध्यान में रखने के लिए उसका अभ्यास करना ज़रूरी है?
दादाश्री : अभ्यास करने से तो बल्कि उसका ध्यान चला जाएगा। ध्यान तो सहज स्वभावी है। सूर्यनारायण उगते हैं तो क्या सूर्यनारायण के