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सहज 'लक्ष' स्वरूप का, अक्रम द्वारा
दादाश्री : वह शुद्ध सामायिक थी। मनुष्य में ऐसी सामायिक करने का सामर्थ्य ही नहीं है न! शुद्ध सामायिक! मैंने आपको जैसी सामायिक दी है, वह दिव्यचक्षु सहित सामायिक थी।
वे पुनिया श्रावक घर में रहें या बाहर घूमे, फिर भी उन्हें शुद्ध सामायिक होती थी। उनकी वह सामायिक दिव्यचक्षु के आधार पर थी। वे रूई लाते थे और फिर उसकी पुनियाँ बनाकर बेचते थे, इसलिए वे पुनिया श्रावक कहलाते थे। पुनियाँ कातते समय उनका मन, तार में रहता था और चित्त भगवान में रहता था। इसके अलावा वे बाहर कुछ भी देखते-करते नहीं थे। दखल करते ही नहीं थे। मन को व्यवहार में रखते थे और चित्त को निश्चय में रखते थे। वह सर्वोच्च सामायिक कहलाती है।
यह अभ्यास बनाता है सहज प्रश्नकर्ता : यों तो अधिकतर रियल-रिलेटिव रहता है लेकिन फिर कुछ समय बाद वापस चला जाता है, ऐसा होता रहता है।
दादाश्री : वह तो ऐसा है न, बहुत समय का उल्टा अभ्यास था इसलिए ऐसा होता रहता है। फिर यों करते-करते यह अपना अभ्यास मज़बूत हो जाएगा तो फिर सहज हो जाएगा। अनंत जन्मों से अभी तक उल्टा अभ्यास था। तो यह अभ्यास करते रहने से वैसा हो जाएगा। अभ्यास करना पड़ेगा। शुरू के पाँच-सात दिन तक अभ्यास करते रहने से फिर सहज हो जाएगा। पहले, बाहर रिलेटिव और रियल देखने का अभ्यास करना पड़ेगा। अभ्यास करने से फिर हो जाएगा।
जहाँ कर्ता और दृष्टा अलग, वहाँ सहजता प्रश्नकर्ता : लेकिन दादा, आप कहते हो न कि आपको सहज हो चुका है, फिर अभ्यास की क्या ज़रूरत है?
दादाश्री : इसे सहज इसलिए कहना चाहते हैं कि जो असहज हो चुका है, यदि वह सहज हो जाए, वही की वही क्रिया दोबारा हो और हमारे कुछ भी मेहनत किए बगैर हो जाए, तब हम जानेंगे कि