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असहज का मुख्य गुनहगार कौन?
दादाश्री : ऐसा है। प्रकृति को सर्दी के दिनों में ठंड लगती है, गर्मी के दिनों में गर्मी लगती है। मतलब अहंकार ये सारे राग-द्वेष करता है। यदि अहंकार चला जाए तो राग-द्वेष चले जाएँगे।
प्रश्नकर्ता : अर्थात् ज्ञान मिलने के बाद प्रकृति ऑटोमैटिक सहज होती ही जाती है न?
दादाश्री : हाँ, ज्ञान मिलने के बाद प्रकृति अलग हो गई लेकिन डिस्चार्ज रूप में है। वह धीरे-धीरे डिस्चार्ज होती रहेगी। जो चार्ज हो चुकी है, वह डिस्चार्ज होती रहेगी। जीवित अहंकार के बगैर ही डिस्चार्ज होती रहती है, अपने आप ही। उसे हम 'व्यवस्थित' कहते हैं।
असहजता, राग-द्वेष के स्पंदन से... प्रश्नकर्ता : आपने बताया कि प्रकृति राग-द्वेष वाली नहीं है लेकिन अहंकार राग-द्वेष करता है, वह कैसे?
दादाश्री : प्रकृति स्वभाव से सहज ही है। जैसे कि कोई गुड़िया, कब तक बोलती है और गाना गाती है? जब तक हम उसमें चाबी भरते हैं, तब तक। अगर चाबी देना बंद कर दें तो?
प्रश्नकर्ता : हमें जो चाबी देनी है, वह क्या कहलाएगा?
दादाश्री : अज्ञानता से व्यवहार आत्मा में स्पंदन होते रहते हैं। 'यह मुझे अच्छा लगा और यह मुझे अच्छा नहीं लगा, यह ऐसा है और वैसा है, ऐसे जो स्पंदन होते रहते हैं, उनसे प्रकृति पर असर होता है। प्रतिष्ठित आत्मा असहज हो जाता है।
व्यवहार आत्मा के सहज हो जाने के बाद देह सहज हो जाएगी। उसके बाद हमारे जैसा मुक्त हास्य उत्पन्न होगा।
ज्ञान के बाद प्रतिष्ठित आत्मा निकाली प्रश्नकर्ता : इस प्रतिष्ठित आत्मा के बारे में समझाइए? दादाश्री : ज्ञान के बाद, एक तो मूल आत्मा है और यह जो