________________
४६
सहजता
प्रश्नकर्ता : अगर व्यवस्थित को निर्धारित समझे, तो फिर कुछ करने का रहा ही नहीं न?
दादाश्री : यदि ज्ञान का दुरुपयोग करेंगे तो वे दखल किए बगैर रहेंगे ही नहीं! इसलिए दखलंदाजी नहीं करनी है। सहज भाव से रहना है! हम रहते हैं न सहज भाव से ! 'मैं' 'पटेल' को कहता हूँ कि रोज़ चार बजे सत्संग में जाना है, वर्ना, फिर रह ही जाएगा न! इस तरह से 'निर्धारित' कहने से तो खत्म हो जाएगा। निर्धारित नहीं कह सकते। है निर्धारित, लेकिन वह ज्ञानी की दृष्टि से निर्धारित है और यह बात ज्ञानी
आपको अवलंबन के रूप में देते हैं। यह एक्जेक्ट अवलंबन है लेकिन इसका उपयोग हमारी बताई हुई समझ के अनुसार करना। आपकी समझ के अनुसार इसका उपयोग मत करना।
___ जब तक आपको केवल दर्शन नहीं हुआ तब तक हम कहते हैं कि भाई, बैंक में से बाहर आओ तो जेब संभालकर रखना। जहाँ 'बिवेयर ऑफ थीव्स' लिखा हो, वहाँ पर जेब संभालकर रखना है और उसके बावजूद भी अगर वे आँख में मिर्च डालकर जेब काट लें तो हमें कहना है कि 'व्यवस्थित' है। अपना प्रयत्न था। बहुत समझने जैसा है। व्यवस्थित तो बहुत ऊँची चीज़ है!
जहाँ दखल चली गई वहाँ प्रकृति सहज जिसे यह 'ज्ञान' मिला है, उसे भी गाड़ी में चढ़ते समय ऐसा विचार आता है कि कहाँ जगह है और कहाँ नहीं। वहाँ सहज नहीं रह पाता। भीतर खुद दखल करेगा, फिर भी अगर 'ज्ञान' में ही रहो, 'आज्ञा' में ही रहो तो प्रकति सहज हो जाएगी। फिर चाहे जैसा भी हो तब भी, भले ही वह लोगों को सौ गालियाँ दे फिर भी वह प्रकृति सहज ही है। क्योंकि हमारी आज्ञा में रहा इसलिए उसकी खुद की दखल खत्म हो गई, और तभी से प्रकृति सहज होने लगती है।
क्रमिक मार्ग में ठेठ तक सहज दशा नहीं होती। वहाँ ' यह त्याग करो, यह त्याग करो, ऐसा कर सकते हैं, ऐसा नहीं कर सकते हैं।' ठेठ तक ऐसी झंझट रहेगी ही।