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आज्ञा का पुरुषार्थ बनाता है सहज
यदि 'व्यवस्थित' को समझे, तो बन जाएगा सहज
'ज्ञान' से पहले, यदि आप स्टेशन गए हो और वहाँ आपको पता चले कि गाड़ी पाव घंटा लेट है तो आप तब तक इंतज़ार करते हैं। उसके बाद फिर पता चले कि अभी और आधा घंटा लेट है तो आप और आधा घंटा बैठते हैं। उसके बाद यदि फिर से पता चले कि अभी और आधा घंटा लेट है तो आप पर क्या असर होगा?
प्रश्नकर्ता : बोरियत हो जाती और इन रेलवे वालों को गालियाँ भी दे देता।
दादाश्री : ज्ञान क्या कहता है कि यदि गाड़ी लेट है तो वह 'व्यवस्थित' है। 'अवस्था मात्र कुदरती रचना है, जिसका कोई बाप भी रचने वाला नहीं है और वह व्यवस्थित है।' इतना हमने बोला, तो ज्ञान के इन शब्दों के आधार पर सहज रह पाएँ। प्रकृति अनादिकाल से असहज बनाती आई है। ज्ञान के आधार पर उसे सहज करनी है। वास्तव में तो यह प्रकृति सहज ही है लेकिन खुद के विभाविक भाव की वजह से असहज हो जाती है। ज्ञान के आधार पर उसे सहज स्वभाव में लाना है। यदि रिलेटिव में दखल करना बंद हो गया तो आत्मा सहज हो जाता है। इसका मतलब क्या कि खुद ज्ञाता-दृष्टा और परमानंद के पद में रहता है।
___ यह ज्ञान हाज़िर रहे तो अगर ट्रेन आधा-आधा घंटा करके पूरी रात भी बिता दें न, तो भी हमें क्या हर्ज है? जबकि अज्ञानी तो आधे घंटे में कितनी ही गालियाँ दे देगा! वे गालियाँ क्या ट्रेन को पहुँचेंगी? गार्ड को पहुँचेंगी? नहीं, कीचड़ तो वह अपने आप पर ही उड़ाता है। अगर ज्ञान हो तो परेशानी में परेशानी को देखता है और सुख-सुविधा में सुख-सुविधा को देखता है, उसी को सहज आत्मा कहते हैं। हमारा यह ज्ञान ऐसा है कि बिल्कुल भी बोरियत नहीं होती। फाँसी पर चढ़ना पड़े तब भी परेशानी नहीं होती। फाँसी पर चढ़ना तो 'व्यवस्थित' है और रोकर भी फाँसी पर तो चढ़ना ही है, तो फिर हँसकर क्यों नहीं?