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[3] असहज का मुख्य गुनहगार कौन? जितना खुद ज्ञान में उतनी ही प्रकृति सहज
प्रश्नकर्ता : आप से आत्मा का ज्ञान लिया है तो प्रकृति सहज हो जानी चाहिए या नहीं?
दादाश्री : वह तो सहज होती ही जाएगी। अगर खुद इस ज्ञान में रहेगा तो सहज ही है! आत्मा सहज ही है, इस देह को सहज बनाना है। जब तक 'आप' असहज रहोगे तब तक वह असहज रहेगी। यदि 'आप' सहज हो जाओगे तो वह तो सहज ही है। आपको सिर्फ सहज होने की ही ज़रूरत है। सहज क्रिया वाला ज्ञान दिया है।
इसमें राग-द्वेष किसे? प्रश्नकर्ता : यदि हमारी प्रकृति बहुत राग-द्वेष करे तो उसका निकाल कैसे करना चाहिए?
दादाश्री : स्थूल प्रकृति राग-द्वेष वाली है ही नहीं। वह तो पूरणगलन स्वभाव वाली है। यह राग-द्वेष तो अहंकार करता है। इसे जो अच्छा लगता है उस पर राग करता है और यदि अच्छा नहीं लगता तो द्वेष करता है। प्रकृति तो अपने स्वभाव में है। सर्दी के दिनों में ठंड पड़ती है या नहीं?
प्रश्नकर्ता : पड़ती है।
दादाश्री : यदि उसे वह अच्छा नहीं लगे तो उसे द्वेष होता है। कितनों को तो इसमें मज़ा आता है। नहीं आता क्या?
प्रश्नकर्ता : हाँ, ठीक है।