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असहज का मुख्य गुनहगार कौन ?
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प्रश्नकर्ता : व्यवहार आत्मा किसे कहते हैं ?
दादाश्री : संसार अर्थात् क्या है ? कि व्यवहार आत्मा दखलंदाज़ी करने में पड़ गया। और देह का स्वभाव कैसा है ? सहज है । अगर व्यवहार आत्मा दखलंदाजी नहीं करेगा, तो देह सहज ही है । देह भी मुक्त और आत्मा भी मुक्त । यह दखलंदाज़ी की वजह से बंध गया है। इसलिए हम दखलंदाज़ी बंद करवा देते हैं । तू यह (चंदूभाई) नहीं है, तू आत्मा है इसलिए वह दखलंदाज़ी बंद कर देता है । अहंकार, ममता चले गए। अब, जितनी दखलंदाज़ी बंद कर देगा उतना तू वह (आत्मा) रूप हो जाएगा, सहज रूप । सहज अर्थात् दखलंदाजी नहीं! यह अपने आप चल रहा है और वह भी अपने आप चल रहा है, ये दोनों अपनेअपने तरीके से ही चलते रहते हैं ।
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व्यवहार आत्मा अपने स्वभाव में रहता है और यह देह अपने स्वभाव में रहता है। देहाध्यास चले जाने की वजह से दोनों का जो संधिस्थान था एकाकार होने का, वह देहाध्यास चला गया। इसीलिए देह अपने काम में और आत्मा अपने काम में रहता है । उसी को सहजता कहते हैं।
प्रश्नकर्ता : भाव तो प्रतिष्ठित आत्मा ही करता है न, दादा ? शुद्धात्मा तो करता ही नहीं न ?
दादाश्री : वास्तव में प्रतिष्ठित आत्मा भाव करता ही नहीं है न ! शुद्धात्मा भी भाव नहीं करता । यह तो जो ऐसा मानता है कि 'मैं चंदूभाई हूँ', वह व्यवहार आत्मा भाव करता है । प्रतिष्ठित आत्मा तो भाव से ही बना है न! यदि भाव नहीं होता तो प्रतिष्ठित आत्मा होता ही नहीं 1
यदि 'व्यवहार आत्मा' सहज, तो देह सहज
आत्मा की सहजता तो, मूल आत्मा तो खुद सहज ही है। अगर बाहर वाला सहज हो जाए न, तो खुद सहज ही है। बाहर वाला सहज नहीं होता न !
प्रश्नकर्ता : अभी भी यह ठीक से समझ में नहीं आया ।