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सहजता
ओहोहो, यह तो सहज हो गया । अतः सहज स्वरूप उत्पन्न हो गया । वर्ना सहज स्वरूप से नहीं हो सकता । यों चाय का प्याला लाया और ले गया, रखा और ऐसा सब किया, अभी भी वही सब होता है लेकिन वह चंदूभाई करते हैं, उसमें आपको क्या लेना-देना? आप चंदूभाई को जानते हो कि चंदूभाई ने ऐसा किया, वैसा किया। अब ऐसा असहज क्यों था ? तो कहता है कर्ता था और ज्ञाता - दृष्टा था, दोनों खुद ही था । ' यह मैंने किया' और 'इसे मैंने जाना' । अरे भाई ! वे दोनों धाराएँ अलग हैं, फिर उन्हें एक ही कर दी, मिला दी इन लोगों ने। उन कषायों का स्वाद आता है। इस संसार का स्वाद कैसा आता है ? क्योंकि दो धाराएँ मिल गई इसलिए कषायों का स्वाद आता है और यदि दोनों अलग हो जाएँगी, तो मीठा लगेगा। अब उसका अलग हो जाना, उसी को सहज कहते हैं ।
प्रश्नकर्ता : तो फिर अभ्यास से सब सहज हो जाएगा ?
दादाश्री : ज्ञान लेने के बाद सहज होने की शुरुआत होती है । जो असहजता आ गई थी, वह सहज होने की शुरुआत होती है । भीतर में परिणाम सहज रहता है और बाहर इफेक्ट भी सहज रहता है । और खुद का परिणाम सहज होने की क्रिया में रहता है । अतः किसी भी जीव को किंचित्मात्र दुःख न दें, इस तरह से सब रहता है।
शुद्ध उपयोग, वही पुरुषार्थ
प्रश्नकर्ता : एक ऐसी बात निकली थी कि जितना मज़बूत अनुभव अज्ञान का हुआ है, उतना मज़बूत अनुभव ज्ञान का होना चाहिए।
दादाश्री : ज्ञान का गाढ़ अनुभव होने के बाद फिर उपयोग नहीं रखना पड़ता है, अपने आप ही रहता है । जब तक गाढ़ अनुभव नहीं हुआ होगा तब तक उपयोग रखना पड़ेगा। उपयोग, वह पुरुषार्थ कहलाता है और वह पुरुषार्थ पूर्ण तक कब पहुँचेगा ? जब गाढ़ तक पहुँच जाएँगे तब पुरुषार्थ पूर्ण हो जाएगा।
प्रश्नकर्ता : तो जब अज्ञानता का अनुभव होता है तब उपयोग रखने की ज़रूरत है क्या ?