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सहज 'लक्ष' स्वरूप का, अक्रम द्वारा
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दादाश्री : उपयोग तभी रखना पड़ता है न! प्रश्नकर्ता : ताकि उस अनुभव के असर में खुद न आ जाएँ।
दादाश्री : यदि वापस खुद का उपयोग रखेगा न, तो अज्ञानता के अनुभव के असर में नहीं आएगा। वह समय खुद का कहलाता है, समयसार कहलाता है। वह समयसार के बगैर नहीं होता। वर्ना समयसार नहीं कहलाएगा, पर-समय कहलाएगा। आत्मा का जितना उपयोग रहा, उतना सब समयसार । जो समय 'स्व' में गया, वह सारा समयसार और जो समय 'पर' में गया, वह सारा पर-समय।
प्रश्नकर्ता : अज्ञान का अनुभव किसे होता है और ज्ञान का अनुभव किसे होता है?
दादाश्री : अज्ञान का अनुभव बुद्धि और अहंकार को होता है और ज्ञान का अनुभव प्रज्ञा को होता है।
प्रश्नकर्ता : 'मैं शुद्धात्मा हूँ', ऐसा जो बोलता है, उसे भी प्रज्ञा देखती है?
दादाश्री : बोलता है टेपरिकॉर्डर, लेकिन भाव प्रज्ञा का है। प्रश्नकर्ता : तो वह सहज क्रिया प्रज्ञा की हुई ?
दादाश्री : प्रज्ञा की सभी क्रियाएँ सहज ही होती हैं, स्वाभाविक ही होती हैं।
निरालंब बनाती है पाँच आज्ञा यह आपको जो दिया है न, वह शुद्धात्मा पद है। अब जब से शुद्धात्मा पद मिला, तभी से मोक्ष होने की मुहर लग गई। शुद्धात्मा पद प्राप्त होता है लेकिन 'शुद्धात्मा', वह शब्द का अवलंबन कहलाता है। जब निरालंब होगा, तब आत्मा ठीक से दिखाई देगा।
प्रश्नकर्ता : हाँ! तो वह निरालंब दशा कब आएगी? दादाश्री : अब धीरे-धीरे निरालंब की ओर ही जा रहे हो। यदि