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सहजता
ही सहज रूप से दिखाई देगा। पहले का अभ्यास तो उल्टा था, इसलिए अब इसका अभ्यास करना पड़ेगा न? यानी कि कुछ दिनों तक हैन्डल मारना पड़ेगा।
प्रश्नकर्ता : सुबह जब बाहर घूमने जाते हैं, तब 'मैं शुद्धात्मा हूँ, मैं शुद्धात्मा हूँ' यों बोलते हैं और फिर जब आसपास पेड़-पौधे वगैरह देखते हैं तब ऐसा बोल देते हैं कि 'शुद्धात्मा को नमस्कार करता हूँ', तो इन दोनों में से कौन सा ज़्यादा अच्छा है?
दादाश्री : वह जो भी बोलते हो, करते हो, वह सब ठीक है। जब धीरे-धीरे यह बोलना भी बंद हो जाएगा तो वह उससे भी अच्छा है। बोलना बंद हो जाएगा और अपने आप ही रहा करेगा।
प्रश्नकर्ता : तो इन दोनों में से कौन सा अच्छा है ?
दादाश्री : दोनों। बोलना ज़रूरी नहीं है, फिर भी अगर बोलते हो तो अच्छा है। बोले बगैर, ऐसे ही नमस्कार नहीं किया जा सकता? लेकिन अंदर ही अंदर बोलने में भी कोई हर्ज नहीं है। मन में ऐसा बोले हो, तो भी कोई हर्ज नहीं है।
शुद्ध सामायिक की कीमत पाँच वाक्यों (आज्ञा) में जितना रह पाओ उतना अवश्य ही रहना चाहिए और यदि न रहा जा सके तो भीतर थोड़ा-बहुत खेद रखना चाहिए कि 'ऐसे तो कैसे कर्म के उदय लेकर आए हैं जो हमें आज शांति से नहीं बैठने देते!' दादा की आज्ञा में रहने के लिए, कर्म के उदय का भी साथ चाहिए न? नहीं चाहिए? नहीं तो चलते-चलते एक घंटे तक शुद्धात्मा देखते-देखते जाना। इस तरह एक घंटा बिता देना। लो चलतेफिरते पुनिया श्रावक की सामायिक हो गई !
'अपनी' यह सामायिक करते हो, तब भी प्रकृति एकदम सहज कहलाती है।
प्रश्नकर्ता : भगवान महावीर ने भी जिनकी सामायिक की प्रशंसा की है, उसमें क्या रहस्य है, वह ज़रा समझाइए।