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सहज 'लक्ष' स्वरूप का, अक्रम द्वारा
प्रश्नकर्ता : आता है।
दादाश्री : वह सहज कहलाता है और अन्य सब असहज कहलाता है। यह सहज कहलाता है, 'मैं शुद्धात्मा हूँ' अपने आप ही रहता है जबकि कहीं और गुरु महाराज मंत्र स्मरण देते हैं । वह याद आए या न भी आए। उसके लिए प्रयत्न करना पड़ता है जबकि यह तो आपको सहज रूप से हो गया है। आपका सहजात्मस्वरूप हो गया है। आपका आत्मा सहज हो गया है, अब देह को सहज करना है । वह पाँच आज्ञा का पालन करने से सहज हो सकती है । जब दोनों सहज हो जाते हैं तो उसी को मोक्ष कहते हैं ।
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सहज रूप से बरतता है लक्ष, शुद्धात्मा का
प्रश्नकर्ता : समकित प्राप्त जीव को, आत्मा का स्मरण किस प्रकार से रहता है ?
दादाश्री : समकिती जीव को, 'मैं शुद्धात्मा हूँ' वह भान अपने आप रहता है जबकि और लोगों का कोई ठिकाना नहीं रहता। उन्हें तो कभी कुछ समय के लिए थोड़ा-बहुत याद आता है कि 'मैं आत्मा हूँ' लेकिन समकिती को तो अपने आप रहता ही है। जबकि स्मरण करना पड़ता है उसमें बहुत अंतर है । स्मरण करने से वह विस्मृत हो जाता है। जो विस्मृत हो गया है, उसका स्मरण करना है, अर्थात् ये सभी आगे बढ़ने के रास्ते हैं इसलिए आपको रटना नहीं है । रटने से तो 'वह' मूल, सहज वाला बंद हो जाएगा । सहज वाला भीतर से आता है, अपने आप ही आता है, ‘मैं शुद्धात्मा हूँ', का ही लक्ष रहा करता है
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प्रश्नकर्ता : तो ‘मैं शुद्धात्मा हूँ', ऐसा बोलना नहीं है ?
दादाश्री : बोलना है तो बोलो, वर्ना उसकी कोई ज़रूरत नहीं
। वह निरंतर चौबीस घंटे लक्ष में ही रहता है । रोज़ रात को 'मैं शुद्धात्मा हूँ' बोलते-बोलते सो जाना है और पाँच आज्ञा का पालन करना, तो बहुत हो गया। तब यहीं पर मुक्ति हो जाएगी, सभी दुःखों का अभाव हो जाएगा, फिर संसारी दुःख स्पर्श नहीं करेंगे ।