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सहजता
नहीं है यह रटन, शुद्धात्मा का प्रश्नकर्ता : 'ज्ञान' लेने के बाद 'मैं शुद्धात्मा हूँ', 'मैं शुद्धात्मा हूँ', का रटन और भगवान का नाम-स्मरण, इन दोनों में क्या अंतर?
दादाश्री : ओहोहो! रटने की तो ज़रूरत ही नहीं है। रटन तो रात में थोड़ी देर के लिए करना है लेकिन पूरा दिन ही, 'मैं शुद्धात्मा हूँ', 'मैं शुद्धात्मा हूँ', इस प्रकार से रटने की कोई जरूरत नहीं है।
प्रश्नकर्ता : ऐसा नहीं करे फिर भी 'मैं शुद्धात्मा हूँ', ऐसा अपने आप आ जाता है।
दादाश्री : नहीं! लेकिन रटने की ज़रूरत नहीं है। रटना और अपने आप आना, दोनों में अंतर है। अपने आप आने में और रटने में अंतर है या नहीं? क्या अंतर है?
प्रश्नकर्ता : वह सहज रूप से आ जाता है।
दादाश्री : हाँ! सहज रूप से आ जाता है। अर्थात् जो आपको सहज ही रहता है, वह तो बहुत कीमती है। अगर रटने की कीमत चार आने है, तो इसकी कीमत अरबों रुपए है। इतने अंतर वाली बात को आपने एक साथ रख दिया। अभी आपके ध्यान में ऐसा रहता है कि 'मैं चंदूभाई हूँ' या ऐसा रहता है कि वास्तव में 'मैं शुद्धात्मा हूँ?
प्रश्नकर्ता : 'मैं शुद्धात्मा हूँ'।
दादाश्री : तो वह शुक्लध्यान कहलाता है। आपके ध्यान में जो शुद्धात्मा है, उसे शुक्लध्यान कहा है और शुक्लध्यान, वह प्रत्यक्ष मोक्ष का कारण है। अर्थात् आपके पास जो पूँजी है, वह अभी हिन्दुस्तान में, इस वर्ल्ड में कहीं भी नहीं है! इसलिए इस पूँजी का उपयोग सावधानीपूर्वक करना! और उसकी तुलना इससे मत करना। आपने इसकी तुलना किससे की है?
प्रश्नकर्ता : भगवान के नाम-स्मरण से।
दादाश्री : वह तो जप कहलाता है और जप तो एक प्रकार की शांति के लिए ज़रूरी है, जबकि यह तो सहज चीज़ है।