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सहजता
प्रश्नकर्ता : दृष्टि, वह तो दृष्टा का कार्य है न? दादाश्री : नहीं। प्रश्नकर्ता : तो दृष्टि क्या है?
दादाश्री : दृष्टि तो अहंकार की है आत्मा की दृष्टि नहीं होती। आत्मा को तो सहज स्वभाव से भीतर दिखाई देता रहता है, भीतर में झलकता है! खुद के अंदर ही सब झलकता है!
प्रश्नकर्ता : तो फिर इस आत्मा को जानने वाला कौन है? यह जो आत्मज्ञान होता है, वह किसे होता है ?
दादाश्री : वह दृष्टि अहंकार को मिलती है। वह जो मिथ्या दृष्टि थी, उसके बजाय 'इसमें ज़्यादा सुख मिलता है इसलिए फिर वह अहंकार धीरे-धीरे 'इसमें' विलय होता जाता है। अहंकार शुद्ध होते ही वह शुद्धात्मा में विलय हो जाता है, बस! जैसे कि, अगर शक्कर की गुड़िया को तेल में डाली जाए तो वह नहीं घुलती लेकिन अगर उसे पानी में डालें तो वह घुल जाती है। यह भी इसी तरह से है। अर्थात् शुद्धात्मा दृष्टि होते ही सब विलय होने लगता है। तब तक अहंकार है।
जो सहज रूप से होता रहे, वह है विज्ञान प्रश्नकर्ता : 'मैं शुद्धात्मा हूँ', क्या वह ज्ञान है ?
दादाश्री : नहीं! वह ज्ञान तो विज्ञान कहलाता है। ज्ञान तो इन शब्दों में लिखा हुआ है। जो करना पड़ता है, उसे ज्ञान कहते हैं और जो करना नहीं पड़ता, अपने आप सहज रूप से होता ही रहता है, वह विज्ञान है।
प्रश्नकर्ता : सहज भाव से आत्मा की दशा प्राप्त करने के लिए ध्यान में बैठना चाहिए या नहीं?
दादाश्री : सहज भाव उसी को कहा जाता है कि कोई भी प्रयत्न किए बिना नींद में से जागते हो, तब भी क्या आपको 'मैं शुद्धात्मा हूँ', ऐसा ध्यान अपने आप आ जाता है?