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जैसा सभी करे वैसा खुद भी करे। खुद का अलग नहीं। पोतापणुं रखना ही नहीं चाहिए, तो सहजता उत्पन्न होती है। जब सभी गा रहे हो तब खुद भी गाने लगे। अर्थात् मुझसे ऐसा नहीं होगा, ऐसी सभी अकड़ चली जानी चाहिए तो सहज हो सकते हैं। सत्संग में सभी जैसा करे वैसा करने से जुदाई नहीं रहेगी। (खुद का) फोटो अलग नहीं आना चाहिए। सभी में मिल जाना चाहिए। खुद की डिज़ाइन अनुसार नहीं रहना चाहिए। जिसका खुद का कुछ भी अलग नहीं, वह सहज है। खुद की ड्रॉईंग अलग बनाए उसे कहेंगे सहजता चूक गए।
ज्ञान से पूर्व जो कुछ भी राग-द्वेष किए हों, हमें पसंद नहीं हो, बोरियत होती हो, यह गलत है, ऐसा नहीं कर सकते, ऐसे सभी रोग भरे हुए हों, वे सभी खत्म हो जाने चाहिए। यहाँ सत्संग में जो कुछ भी होता है, उस उदय में चंदू एकाकार रहे और यदि खुद उसे देखते रहे तो असहजता का रोग खत्म होता जाता है और सहज होकर रहता है।
एटिकेट के रोग खत्म हुए बगैर धर्म परिणाम नहीं पाता न! लोगों को देखकर एटिकेट की नकलें की हैं जिससे यह रोग घुस गया है। उस रोग को निकालने के लिए दादाश्री ने युक्ति की है, जो पढ़े-लिखे लोगों को सहज बना देती है।
ताली नहीं बजाना, वह एक प्रकार का अहंकार है और ये भक्तिगरबा, ताली बजाकर असीम जय जयकार करने से तो अहंकार का नाश हो जाता है क्योंकि, वह खुद कर्ता नहीं है, चंदूभाई करते हैं न। इसलिए यहाँ सारी क्रियाएँ, रोंग बिलीफ को छुड़वाने वाली है। हमें तो 'चंदू क्या करता है. चंद ने कैसी ताली बजाई, कैसे गरबा में घूमा,' वह देखना है। यह तो पूर्व में जो चिढ़-तिरस्कार किए हैं वे प्लस-माइनस होकर खत्म हो जाते हैं।
प्रकृति का जो सारा भाग है, वह तो माता जी है, वे आद्यशक्ति स्वरूप से हैं। इसलिए माता जी की भक्ति करने से प्राकृतिक शक्ति उत्पन्न होती है। यहाँ 'चंदू' के पास माता जी की भक्ति करवाने से प्रकृति सहज होती जाती है। दादाश्री कहते कि हम अंबे माँ के इकलौते लाल
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