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नहीं चलाना है। उसके बाद देखो चलता है या आपको चलाना पड़ता है ? यह तो ‘मैं करता हूँ' ऐसे लगाम पकड़कर रखते हैं इसीलिए बिगड़ता है। यदि पाँच इन्द्रियों के घोड़ों की लगाम को छोड़ देंगे तो सहज रूप से चलता रहेगा। व्यवस्थित समझ में आएगा कि रोज़ के बजाय तो आज अच्छा चला। सबकुछ खाना-पीना, व्यापार वगैरह सब अच्छा चला। अगर दोबारा फिर से लगाम पकड़ में ले ली हो, दखल हो जाए तो माफी माँग लेनी है । उसके बाद प्रेक्टिस करते-करते करेक्टनेस आ जाएगी। उससे आगे का स्टेज, चंदूभाई क्या बोल रहे हैं, उसे देखते रहना है कि यह करेक्ट है या नहीं ! यह सहज हो गया, वह तो अंतिम दशा की बात है !
सहज दशा तक पहुँचने के लिए इससे आगे का पुरुषार्थ करने के लिए दादाश्री बताते हैं कि जिसे जल्दी हो उसे अपरिग्रही हो जाना चाहिए। तू व्यवहार से चिपका है कि व्यवहार तुझसे चिपका है ? उस व्यवहार का झटपट निकाल ( निपटारा ) कर देना है और व्यवहार कितना रहना चाहिए? आवश्यक। हवा, पानी, खुराक लेकिन ज़रूरत से ज़्यादा झंझट, वह अनावश्यक कहलाती है । वह उपाधि (बाहर से आने वाला दु:ख) करवाती है और असहज बनाती है और आवश्यक भी कुछ भी सोचविचार किए बिना सहज होना चाहिए। अपने आप, इस तरह से अंतिम दशा का चित्रपट लक्ष में है तो उसकी पैरवी ( कोशिश) में रहना है । आवश्यक और अनावश्यक दोनों की लिस्ट बना लेना, यदि अनावश्यक चीजें चिपक गई हो तो धीरे-धीरे उन्हें कैसे छोड़ दें, उसकी पैरवी में रहना है। लेकिन इस ज्ञान को जानकर रखना है, करने नहीं लग जाना है। हमारे भीतर में ऐसी जागृति होनी चाहिए कि ये वस्तुएँ दुःखदायी लगे। अनावश्यक चीज़ों के लिए खुद के भाव, खुद के करार नहीं रखने हैं। उसके बाद उन चीज़ों को व्यवस्थित उसके समय पर हटा देगा। इस ज्ञान के बाद परिग्रह मात्र डिस्चार्ज है। डिस्चार्ज भले ही रहा, लेकिन डिस्चार्ज में खुद का मोह छोड़ देना है, ममता को विलय कर देना है। भरत चक्रवर्ती राजा के जैसा, परिग्रह होने के बावजूद भी संपूर्ण रूप से अपरिग्रही। मैं अपरिग्रह वाला ही हूँ, मेरा कुछ भी नहीं है, यह स्थिति
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