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"एक भाग का अधिकार देने की प्रेरणा तो देवी ने ही दी?"
"मैंने इनकार कब किया? सन्निधान की इच्छा को समझकर काम करना ही तो देवी का काम है। छोड़िए इस बात को । सन्निधान ने दण्डनाथजी को क्या सलाह दी?"
"हमारी सलाह से अधिक आवश्यक उनकी इच्छा क्या है-यह पहले जानना है।"
"हाँ, वह भी ठीक है। उनकी क्या इच्छा है?" "हम इस सम्बन्ध में कैसे पूछ सकते हैं?"
"मैंने यह कब कहा कि सग्निधान से पूर्छ। मैंने सोचा कि मंचि दण्डनाथ ने कुछ बताया होगा।"
"उन्होंने स्पष्ट तो कुछ कहा नहीं।" "बुलवाकर पूछ लेने पर मालूम हो जाएगा।" "यह सब यादवपुरी जाने के बाद हो सकेगा न?" "ठीक है, वहीं करेंगे," शान्तलदेवी ने कहा।।
कहा ही नहीं, उसी तरह यात्रा की भी व्यवस्था हो गयी। इसके बाद यात्रा के बारे में महामातृश्री एचलदेवी को भी बताया गया।
"तुम दम्पती और बच्चों का जाना ठीक है। राजकुमारियों को वहाँ क्यों ले जाएँ, अम्माजी? वे यहीं रहें सो न बनेगा?" एचलदेवी बोली।
"मेरे लिए दोनों बराबर हैं। सन्निधान ने ऐसा सोचा है कि उन्हें भी साथ ले चलना उचित है, इसलिए ऐसी व्यवस्था की है।"
"मुझे तो यह ठीक नहीं ऊँचता। तुमने भी तो इसे कैसे मान लिया? क्यों नहीं कहा कि यह ठीक नहीं।" ।
"सन्निधान जिसे करना चाहें उसका विरोध में करूँ तो उसकी प्रतिक्रिया मेरे ऊपर ज्यादा होगी।"
"तो क्या छोटे अप्माजी का मन उन पर हुआ है?" "मैं इस तरह सोचती ही नहीं।"
"तुम क्या सोचती हो, इसे मैंने नहीं पूछा। उसका क्या विचार है-यही पूछा।"
"मैं इस विषय में कुछ भी नहीं पढूंगी।" "बह कदापि ठीक नहीं। तुम न पूछो तो मैं ही पूछ लूंगी।"
"न, न; कृपा करके ऐसा कुछ भी न पूछे। सन्निधान के विषय में मेरा पूर्ण विश्वास है। उसे छेड़ना भविष्य की दृष्टि से अच्छा न होगा—यह मेरी राय है।"
"ठीक है, तुम्हारी मर्जी।" कहकर एचलदेवी मौन हो गयीं। वह बात आगे नहीं बढ़ी।
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन :: 2'