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गमोकार प्रेम
(१३) निवा दोष—यह निद्रा कैसी है ? निद्रा के प्रावेश में यह जीव अचेतन होकर गाफिस हो जाता है ऐसी अवस्था में उसे कुछ भी सुध-बुध नहीं रह जाती। सोते हुए को चाहे जो भी कुछ कर डालो उसे खबर नहीं रहती। निद्रा रूपी नशा भी विष्णु महाराज के अन्दर पाया जाता है क्योंकि कालो नाग की पीठरूपी शय्या पर छः माह तक हाथ पांव पसार कर निद्रा में मग्न रहे । उधर षट्मास के वियोग हो जाने से ग्वालिनियाँ दुःखी होकर रोने लगीं। तो विचार कोजिये कि ऐसे ईश्वर का क्या ठिकाना है।? ऐसा निद्रा नामक दोष महन्त सकल परमात्मा में नहीं है सो परम पुरुषोत्तम मेरी रक्षा करें।
(१४) चिन्ता दोष-यह दोष कैसा है ? जिसके होते ही जीव के मन में वैचेनी हो जाती है। पुनः यह चिन्ता कसो है ? भस्म से ढकी हुई अग्नि के समान अन्दर शरीर को भस्म कर देता है। उक्तं घ, गिरधर कवि की कुण्डली इस प्रकार है
चिन्ता ज्वाल शरीर बिन, बावानल लग जाय । प्रकट धूम नहि देखिए, उर अम्बर बुधकाय ॥ उर अन्दर बुधकाय जले, ज्यों कांच की भट्टी। जल गए लोहूं, मांस, रह गई हाड़ की रट्टी ॥ कहें गिरधर पापिया तुनः हो मी गित
वे नर कैसे जियें, जाहिं तम व्यापे चिन्ता ॥ प्रर्य-ऐसी चिन्ता रूपी अग्नि कांच की भट्टी के समान जिनके अन्दर रहती है उनके दुःख का क्या पूछना?
घोष - चिन्ता चिता समान, विन्दु मात्र अन्तर लखो।
चिता वहत निःप्राण, चिन्ता वहत सजीव को॥ ऐसा चिन्ता नामक दोष भी ब्रह्मा, विष्णु, और महेश में पाया जाता है । क्योंकि चिन्ता वहां पर अवश्य होती है जहां पर राग-ष मौजूद रहता है और जहाँ पर राग-दोष है वहाँ पर देवत्वपना नहीं।
भावार्य- भक्ति वानों से राग असुरों से बैर, सो असुरों को मारने की चिन्ता होने से निश्चय ही यह दोष भी इनमें पाया जाता है । जव वे स्वयं दुःखी हैं तो अपने भक्तों को कहां से सुख दे सकते हैं ? अतः राग द्वेष रहित बीतराग देव ही सर्बशता और सर्वथा सुखी दीखते हैं। कारण कि वे न भक्तों से प्रेम और न वैर करने वालों से द्वेष रखते हैं इस कारण उनको चिन्ता नहीं, तब राग हुष से रहित होने के कारण वीतराग देव ही सर्वत्र सुखी है और जब वे स्वयं सुखी हैं तभी हम सभी को भी राग
ष रहित सुखदायी उपदेश देते हैं, पर जो स्वयं सुखी नहीं वह दूसरे को क्या सुख का उपदेश दे सकता है ? इस बात से यह निश्चय हो गया कि राग-द्वष युक्त जो है उसे चिन्ता है और चिन्ता से वह दुःखी है जो राग-द्वेष से रहित होगा वहीं चिन्ता से रहित हो सकता है जहाँ चिन्ता नहीं है वहाँ दुःख नहीं है। इसी लिए भरहन्त परमात्मा में जो अनन्त सुख विद्यमान है वह राग-द्वेष से रहित होने के कारण है। अतः में भी उन्हीं की शरण प्राप्त हो जाऊँ जिससे कि मैं भी उनके सुख को धारण कर सकू।