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नागरमल्ल मलुकचंदके टोलेके साधु पास मेनें आपणि माता कि आज्ञा ले के मै 'मुंडत थया । आशरे संवत १८८८ के साल । तब नागरमल्लजी आचारांग वाचैथा । पीछे आचारांग तथा सुगडांग सूत्र सुण के मेरे को संसा पड गया । परंतु भेद तो कुछ जाण्या नही । मेरे को " अयसी प्रतीत आइ इस शास्त्र का करता सत पुरुष छे । इस सिद्धांत के आराधिक कहां विचरते होएगे । तीना को मेरे मिल्या जोइए | इसी इहा थइ । एह उपकार नागरमल्लजीका छें । उस साल में जीतमल तेरापंथी का दिल्लि मध्ये चोमासा था 'तिना को देख के क्रियापात्र जांणि उनाके पास जाणेकी मेरी सरढ़ा होइ । परंतु मेरे मन में इम आयो नागरमल्लजी तो मेरा उपगारी छे तथा गुरु छे । इसका तो " गुणल्या जोइए । परंतु अब में उठके तेरापंथी साथ चल्या जावा । इनाका कोण जाणे उस देस में आचार विचार चोखा होवें वा मूंडा होवें । मेरो को इहां तो अछे दीसे छे । मेरो को " सताबी करनी न जोइए । तेरापंथी को कुछ जाणपण होए तो मिलणा जोग छे । इम जाणी नागरमल्लके पास दो बरस दील्ली रही कुछक साधु का आचार गोचर व्यवहार मात्र सीखी नें तेरापंथीया को देखणों के वास्ते मेने वीहार कर दीया । तेरापंथीया को मै जैपुर मे जाइ मील्या । तेरापंथीया की सरदा धारिनें उहांते मिवाड देश में तेरापंथीया का गुरु था । उनांके पास में गया । उनाका आचार कुचार देखी नें उनाकी क्रिया उपरथी मेरा मन हट गया । परंतु सरदा उनाकी अछी जांणी । उहां सें " तुरकर में मारवाड में आया । उनकी चरचा मेनें धारी थी । सो चरचा में बावीस टोल्या का मत खंडत कीया था उनानें उनाका मत खंडण कीया । तब मेरे को संका पड गइ कोण सच्चा हे अने कोण जूठा हे ? परंतु मेरी सरदान सिद्धांत उपर रही । तथा मेरी सरदान एह रही मुखबंधे लिंगकी पूर्व भव विषे मैनें उपारजना करीथी । ते कर्म भोगवे विना किम छुटे ? मेंने जाण्या नही इस बाते मेरी सरदान बावीस टोल्या के उपर तथा तेरापंथीया उपर रही । कर्म जोगे मेंने इम न विचारया - वितरागे तो घणा मत कहाछे । कोइ
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9 मुंड - दीक्षित || २ करीब । ३ वाचना देते थे । ४ संशय । ५ ऐसी । ६ मिलना चाहिए । ७ ऐसी इच्छा । ८ उनको । ९ श्रद्धा । १० गुण देखने हैं । ११ अन्तिम निश्चय । १२ शीघ्र ।
मोहपत्ती चर्चा * ४