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गुजरात का संवत १९२७ का था । मेने पिण तिहां चौमासा जाय कीया । फेर सुभागविजेजी की गदी उपर एक तपेगछका यति हुता । तिसको संवेगी मणीविजेने कीया था । उसका चेला हुता तिसका नाम रतनविजे हुता । ते पिण संवेगी गुरु संघाते होइ गया था । तिसको सुभागविजेकी गदी उपर उहांका संघ बेठावणे लगा । उनाने शहर मध्ये 'साद दीया । तिनानें भोजक को कह्या-तुम सर्व साधा को तथा श्रावका को 'सद्दा दे आवो-सवेर को सर्व संघ रुपविजेके डेले मध्ये आवजो, रतनविजे को पन्यास की पदवी देणी हे । सो भोजक सारे संघ को सद्दा दे गया । इस देश मै नुतरां कहेते हैं। .
फेर बीजे दिन संघ डेले में भेला थया पिण में तथा हमारे संघाडेका साधु कोइ नही गया । सद्दा देणेकी चाल हे अरु जिसको जाणा हे सो जाता हे कोई नहीं बी जाता । पिण हम नही गये । तब उनाने जाण्या-बूटेराय के संघाडे का कोई साधु आया नथी । तिना को जाइने बुलाय ल्यावो । दोचार गृहस्थ मिलके मूलचंद तथा वृधिचंदके पास आये । तिनाको कह्या- रतनविजेजीको पन्यास की पदवी देणी हे तुम चलो । मुलचंदकु डेलेवाल्या के तथा लोहारकी पोलवाले साधा के साथ किसे बात की में..." होवेगी तथा सहज नही गये. होवेगे, पिण मेरी तो कुछ . नदी थी । तथा मेरी सरधा परुपणातो उनाके साथ कोइ मिलें थी कोइ नही मिलेंथी । सो सरधा परुपणातो अपणी२ षेउपसम मुजब हे | किसके बस की बात नही । जब जीवकी भवथिति आवेगी तब जीवको देव गुरु का संजोग मिलेगा तथा सहजे समकित पावेगा ।
में पिण जाणता था - इनाकी परंपराय मुजब ए परुपते हे तथा सरदहे । ते पिण जाणते थे बूटेराय ढूढीया विचो आया है । इसकी सरधा हमारे साथ कोइ मिलती हे कोइ नही मीलें । इमही चली जातीथी । पिण लोक व्यवहार में कुछ खेचताण नही थी । सुभागविजेजी तथा मणीविजेजी ए दोनो तो भोले जीव थे । उनाके घणी खेच नही थी । पिण सुभागविजें काल कर गया । जब रतनविजेको पन्यास पदवी दीनी । तव हम तो पदवी देण गये नथी । रतनविजेजी को अछी नही लगी १ निमंत्रण । २ न्यौता । टहल पडाना । ३ क्षयोपशम ।
..मोहपत्ती चर्चा *
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