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दिखावोतो प्रमाण करीए । जूठा मतकदागरातो जूठे को रुचे हैं । सत पुरुष को तो सत पुरुष की सरधान अंगीकार करनी जोइए पिण पखपातमे पड़ना जोग नथी । तिवारे शिष्य बोल्या- मेरे को तो संका पड गइ में किस पुरुष को साचा कहु ? किसको जूठा कहु ? एतो कोइ किम कहे हे कोइ किम कहे हे । में किस की सरधान अंगीकार करूं ? तथा किस की छोड़ ? मेरे को कोइ रस्ता बतावो मेरी सरधान सुध किम होवे ? ते कहो । उत्तर- हे शिष्य तेरी मती शुद्ध होए तो बात बणे । तेरी मती विपरीत होए तो बात नथी बणती । तेरे को कर्म विवर देवे । ज्ञानावर्णी तथा दर्शनावर्णी कर्म उपसम होवे तो तेरे को जूठ तथा सच की सोजी पडे । देव गुरु तो निमित्त कारण हे । तेरा उपादान जागे तो देव गुरु निमित्त कारण होवे । देवगुरु धर्म तो सर्व जीवाको सदाइ हितकारी हे । पिण आत्मा में देवगुरु के उपदेसते ज्ञान प्रगट होवे तो जीवा को हित भणी होवे । इस वास्ते निश्चे तो आपणी
आत्माइ हिताहितकारी हें । पिण बीजा कोइ हिताहितकारी नथी । व्यवहारे देव गुरु धर्म हितकारी हे । कुदेव कुगुरु कुधर्म अहितकारी हे । सो तेने कह्या- कोइ किम परुपे हे कोइ किम परुपे हे । मेरे को संका पड गइ । ए संका तो कदाचित जाणेवाली नथी । एहवा काल कौणसे दिन आवेगा ? जौणसे दिन असत् परुपक कहेगे जे हम तो असत् परुपक हे तुम तो सत् परुपका के पास जाइ सत् परुपणा अंगीकार कर । एह बात तो कदाचित बणे नही । पणि ए बात तो अनादि कालनी बण रही हैं-सत परुपक तो हितोपदेस देते हैं । कोइ जीव धर्म सुणीने प्रतिबोध पावे तो कहेगे-यथा सुखं जिम सुख होवे तिम करो । पिण धर्म कार्जमें ढील मत करो । किस वास्ते सत् परुपक तो निरापेखी होवेहें ।
तथा असत् परुपक तो कहे- हमारी परुपणा तो सतहीजे । तुम अंगीकार करले । चूक मत । चूकसे तो फेर दुर्लभ प्राप्त होवेगी । ते मोह वस इम कहे तो पिण जिसकी आत्माको ज्ञान बोध होवेगा ते जीव सुद्धासुद्ध विचारेगा । तिस वास्ते आपणी आत्मा हिज निश्चे उपकारी जाणवो । बीजो सुखदाइ दुखदाइ कोइ नथी । तुम आपही विचारोगे तो सुखी थासो । तेरे को विचार करी जोइए- असंजतीया का अछेरा कौणसे तीर्थंकर के तीर्थ में थया ? ते विचार करवो ।
मोहपत्ती चर्चा * ४७