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उत्पन्न हुवा । सो कीस वास्ते संसा प्रगट हूवा ? ते पुरुष आत्मार्थि थे । तिनाका संसा केसी गौतमजीने निवार्या । ते पिण आत्मार्थि दोनुं महाराज थे । 'तिस वास्ते संसा निवारीने जिनधर्म की एकता कीधी । एहु अध्येन किस वास्ते कह्यो छे ? जीम केसी गौतमजी के साधां को संसा प्रगट हूवा तिम इस काल में कोई तागा पायके सदाय मुखबंधी वीचरदे है । कोइ कानमें १गली कराय के कथा बीच मुखबंधदे है फेर मुख नथी बंधते । तथा कोइ कोइ सदाइ मुखपत्ती हाथ में रखदे है अरु उनाकी सरधा मुखपत्ती बंधणे की नही है । बोलणेका काम पडे तो मुख ढंकके बोलणे की सरधा है । तथा कोइ आखदे है- वाउकाय के जीवा की दया निमित्त मुखबंधणा है । तथा कोइ आखदे है-उडते फिरते जीवा की रक्षा निमित्त मुख ढांकणा छ ।।
सलिंगे अन्नलिंगे गिहिलिंगे तहेव य ।। उत्तराध्येन अध्ययन ३६ गाथा ५१ । इहां सर्व कर्म खपावी सिद्ध थया । सर्व गुणेकरी संयुक्त थया । तेरमे चउदमे गुणठाणे का धणी हुआ । नीश्चे नयके मतें भावत आत्मा मुनि थया । परंतु वीतरागे व्यवहार नयके मते श्री वीतरागे सलिंगी १ अन्यलिंगी २ गृहस्थलिंगी ३ जेहने जेहवा लिंग हता तेहवा लिंग कहा । पिण गुण का ग्रहण करी कये व्यवहार मै अन्यलिंगी गृहलिंग कह्या, परंतु मुखबंधालिंग तथा मुखखुलालिंग दोनो लिंग जुदे २ प्रत्यक्ष प्ठे इना विषे कौणसा सयलिंग छै तथा कौणसा अन्यलिंग छे ? इसका निरना करना जिन धर्मिको जोग छ । निरना करके सयलिंग आचरवा योग्य छै, अन्यलिंग छोडवा योग्य छे । नहि छुटे तो सयलिंग को सयलिंग सरदै अन्यलिंग को अन्यलिंग सरदै तो पिण दृष्टी २समी रहे । मिथ्यासंबंधी कर्मबंध न होवे एह पिण मोटा लाभ थाय । भाव जैनी थाय । छोडे ते द्रव्य भाव जैनी थाय । इत्यादिक अनेक सरधा रही है । आत्मार्थि को एह संसा किम नही पडे ? अपितु पडी ज है । ति विचारे इनामें कौण साचो कौण जूठो ? तीसको सूत्रा वीचौ तथा मतीयां को पूछके निरना को जोइए । निरना करके सिद्धांत उक्त धारना करी चाहिये ।
ते प्रत्यक्ष मुखबंध्यालिंग तथा मुखखुल्लालिंग ए दो लिग छे । इना बिचौ एक तो सयलिंगी छै तथा एकतो अन्यतीर्थ छै । अरु दोनो १ ‘छेद' अर्थ लगता है । २ सम अथवा सम्यक् रहे ।
१४ * मोहपत्ती चर्चा