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मध्ये जीव उपजदा छे तिस जात कुलका रागी होय के आपणी जैसी कुल रीत छे तेसी र कुल रीत करता है । ते कुल रीत को धर्म करी माने परंतु वीतराग की आज्ञा रुप तत्त्व पिछाने नही । तथा कोइ पुरुष कर्म जोगे निन्हव पासे मुडत हुया । तिसको कुमत की ममत पड गई । इम विचारे नही- मैने मातापितादिक सर्व संबंधी छोडे तो मेरे को कुमतसे १ नीक्या मोह छे । जौणसा साचा मार्ग छे ते मेरे को प्रमाण छे । यत गाथाः 'जेसिं कुले समुप्पन्ने जेसिं वा संवसे नरे, पमाइ लुप्पइ बाले अन्नमन्नेहिं मुच्छिए' ।
हे आरजो ! तुम मोह ममता मध्ये मत पडो । जिम सूत्र मध्ये छे तिम आराधो पालो सरधो । संसार समुद्र तरो । मुखवस्त्र हाथमांहि राखीने सुखे संजम पालो । एह वीतरागने केवलज्ञानमे देखीने सर्व जीवा को हीतकारी वाणा कहया छे । साख उत्तराध्ययने । एह तो मुखबंधण रुप भंडी उतारते लज्या कांइ करो छे ? नीच कर्म छोड़ के उंच कर्म करनेमे तो लज्या करनी चाहीए नहीं । कुमत छोड के समत आदरनेमें लज्या काहेको करनी ? कुलिंग छोड के स्वलिंग धारणे मांहें लज्या काहे को करनी ? तथा खर छोड़ के गज चडने मांहि लज्या काहे को करनी ? तिर्यंच विचो स्वर्ग मांहि जावे लज्या काहे को करणी ?
हे भव्य जीवो ! श्री जिनसासणमें आपणे मेले श्री तीर्थंकरजी महाराज दीक्षा लेके तप संयम करीने केवलज्ञान पामी समोसरणमे बेठी बारा प्रकारनी प्रर्षदामें उपदेस देइ चतुर्विध संघकी स्थापना करते है । साध साधवीया को दीक्षा देते हे । तथा ग्रहस्थ तथा अन्नलिंगी को केवलज्ञान होए जावे तो पिण साधु का लिंग अंगीकार करे विना पर्षदा मांडी वखाण करे नही । तो इण काल में कोइएक कथा में मुख बांधे छे पीछे खुले मुख विचरे छे मुख खुला तथा बंध्या होया ए बे लिंग प्रत्यक्ष जुदे जुदे छे । इण में स्वलिंग कउण सा ? अणलिंग कउण सा ? ते विचारवा जोइए ।
प्रथम छेदोस्थापणी दीक्षा देणें का अधिकारी तिर्थंकर छे । पीछे गणधरजी महाराज छे । फेर आचार्य छे । फेर उपाध्यायजी महाराज
१ केवल ।
मोहपत्ती चर्चा * ४३