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अथितिसाधुमें बी नही मिलते तथा इनाने पोते दीक्षा लीधी छे श्रीमहावीरस्वामी के तीर्थमेवी नथी मिलते । तीसते इनामे छेदोस्थापणी चारित्र बी संभव होवे नहि । इम चौथा चारित्र गया४ । समायक चारित्र जावजीवका महावीदेहमें तथा बावीस तीर्थंकराके वारे होता हे । तीनाके तीर्थमे नथी मिलते । उनाके चार महाव्रत हे । छेदोस्थापनी चारित्र तिनाके तीर्थ मे नथी । तथा रीषभदेवजी के तीर्थ में तथा महावीरजी के तीर्थ में समायक चारित्र उत्कृष्टा ६ महीने होता हे । पीछे छेदोस्थापनी मुख होय जाता हे । सों इनाने आपणे मेले दीक्षा लीधी छे । किसे परमप्राइ गुरु पासो दीक्षा लेइ नथी । इस वास्ते ए महावीरस्वामी के तीर्थ के साधु पिण नथी । इस वास्ते इनाके सूत्र देखता तो कोइ चारित्र बी संभव नहि होता । निःकेवल अज्ञान कष्ट छे । मेरे को जिम भास्या तिम में लिख्या छे । आगे बहुश्रुत कहे सो प्रमाण । प्रभु के वचन अनंत नय आत्म कहे । जिम वीतरागे कह्या तिम प्रमाण । इसमें कुछ संदेह नथी ।
जीनांको तुम कहेते हो - संवत १५३२ के साल क्रिया उधार कीया । आपणा मत रखणेके वास्ते क्रिया कष्ट तो तिनाने घणा कीधा । परंतु प्रतिमाकी पूजा हिंसाधर्म परुप्या । एह उनामे दोष काढ्या । जिना की ऐसी विचार छे - प्रभु की पूजा करनी परुपते हिंसाधर्मो कहीए । प्रभुनी पूजा निषेधे तो दयाधर्मी कहीए । एह बात तो वडि आश्चर्यकारि सुणी । हे आर्य ! ए उपदेस तेरे को केणे गुरे दीधो ? जो वीतरागकी भगती का उपदेस देवे ते हिंसाधर्मी, जिणभक्ति निषेधे ते दयाधर्मी । इमतो किसे सिद्धांत में देखण में आया नथी । मनोकल्पत बातो करनीया जोग नथी । तथा इमतो सिद्धांतो में घणे ठामे लख्या हे - हिंसा खोटी दया चोखी । जो कोइ जीवाको हणेगा तिसको हणावणा पडेगा जे दुःख देवेगा ते जीव दुख पावेगा । अहो भव्यजीवो ! तुं छ कायकी दया पालो जिम तुमारे को मोक्ष के सासते सुख प्रापत होवें । इम जाणी धर्म में उद्यम करो । मोह ममता छोडो । अठारा पाप परहरो । ते मोटे दुखदाइ हे न । महासंतका कारण हे न ।
इत्यादिक मुनि महाराजोका उपदेस सुणके किसें भव्य जीवको विराग आया जब तिसने आरंभ परिग्रह खोटा जाणीने मुक्या । महाव्रतादिक मुनि धर्म आदर्या । तिसको भावपूजा संभव हे । मुनि
७६ * मोहपत्ती चर्चा